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________________ १६० जैन संस्कृत महाकाव्य पुण्यकुशल ने प्रथम सर्ग में मार्गवर्णन के कतिपय तत्त्व आदिपुराण से ग्रहण किये हैं, कुछ अन्य विशेषताएं हेमचन्द्र के वर्णन पर आधारित हैं। आदिपुराण में तक्षशिला के पार्श्ववर्ती गोचर में विचरती गायों का स्वभावोक्ति के द्वारा मनोरम चित्र अंकित किया गया है (३५.३८)। पुण्यकुशल ने इस स्वभावोक्ति पर कल्पना का लेप चढ़ाकर गोसमुदाय को बाहुबलि के मूर्तिमान् यशःपुञ्ज के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया है (१.४) । भ० बा० महाकाव्य में शालिगोपिकाओं का रेखाचित्र (१.३८) जिनसेन के प्रासंगिक वर्णन से प्रेरित है जिसमें उसने शुक के समान हरी चोलियाँ बांधकर 'छो-छो' शब्द से तोतों को उड़ाने वाली शालिगोपिकाओं का अतीव सजीव तथा हृदयग्राही शब्दचित्र अंकित किया है (३५.३२-३६) । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (त्रि. श. पु. चरित) लोकजीवन के इस मधुर प्रसंग से शून्य है। तक्षशिला के वर्णन के अन्तर्गत पुण्यकुशल ने वहाँ की हाट का रोचक चित्रण किया है, जो अपने वैभव के कारण वारवधू-सी प्रतीत होती थी (१.५६-५७)। उसके आधारग्रन्थों ने भी तक्षशिला के वणिक्पथ की उपेक्षा नहीं की है। आदिपुराण में पुंजीभूत रत्नसम्पदा (३५.४२) तथा त्रि.श.पु.चरित में इन्द्रतुल्य वणिग्जनों के वैभव (१.५.६०) के द्वारा तक्षशिला की समृद्धि को रेखांकित किया गया है। भ० बा० महाकाव्य में बाहुबलि की सैन्यशक्ति के अंगरूप में उसकी चतुर्विध सेना तथा शस्त्राभ्यासचली का अलंकृत वर्णन (१.४२-४७,५०-५१) हेमचन्द्र के समानान्तर वर्णन से प्रेरित है (१.५.५५-५७) । पुण्यकुशल ने तक्षशिलाधिपति का प्रौढ़ कवित्वपूर्ण शब्दचित्र अंकित किया है जिसमें उसका तेज, वैभव तथा पराक्रम अनायास उजागर हो गये हैं (१.७१-७७)। इस शब्दचित्र का आधार आदिपुराण (३५.४५५०) तथा त्रि.श.पु.चरित (१.५.६६-७६) के उन वर्णनों में खोजा जा सकता है. जो विभिन्न शब्दावली में बाहुबलि के उक्त गुणों का प्रतिपादन करते हैं । उपजीव्य काव्यों के समान भ० बा० महाकाव्य में भी दूत, बाहुबलि की तेजस्विता से, भौचक्का रह जाता है।" द्वितीय सर्ग में वणित घटनाएँ लगभग पूर्णतया आधारग्रन्थों के अनुकूल हैं । इसमें भरत की षट्खन्डविजय के माध्यम से उसके दुर्द्धर्ष शौर्य का वर्णन करके दूत द्वारा बाहुबलि को चक्रवर्ती अग्रज की प्रभुता स्वीकार करने को प्रेरित किया गया है। इसके अन्तर्गत अभिषेकसमारोह में अनुजों के न आने से भरत की मानसिक व्यथा, उनके प्रति दूसप्रेषण, अधीनता स्वीकार न करके उनके प्रव्रज्या ग्रहण करने, ११. चचाल प्रणिधिः किंचित् प्रणिधान्निधोशितुः । आदिपुराण, ३५.५५. ददर्श बाहुबलिनं स तत्रोद्भूतविस्मयः। त्रि.श.पु.चरित, १.५.७६. स दर्शनात् क्षोणिपतेः प्रकम्पितः। भ.बा. महाकाव्य, १.७८.
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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