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________________ भरतबाहुबलिमहाकाव्य : पुण्यकुशल लोट जाता है। इस सर्ग में युद्ध का अतीव उदात्त तथा कवित्वपूर्ण वर्णन है। अठारहवें सर्म में छहों ऋतुएँ भरत की सेवा में उपस्थित होती हैं। देवताओं से यह चानकर कि मानत्याग से बाहुबलि को केवलज्ञान प्राप्त हो गया है, भरत के हृदय में वैराग्य का उद्रेक होता है और उसे, गृहस्थी में ही, कैवल्य की प्राप्ति होती है। भ० बा० महाकाव्य वर्णनों के विशाल पुंज का दूसरा नाम है । पुण्यकुशल ने जिस कथानक को काव्य का आधारतंतु बनाया है, वह, काव्य के कलेवर को देखते हुए, बहुत छोटा है। परन्तु कवि ने इस लघु प्रसंग पर पूरे अठारह सर्ग खपा दिये हैं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि कथापंजर वर्णनस्फीति की बाढ़ में डूब गया है और काव्य में इतिवृत्त-निर्वाहकता लगभग नष्ट हो गयी है । कथानक-निर्वाहकता की दयनीयता का अनुमान इसी तथ्य से किया जा सकता है कि पांच-पांच सर्गों तक कथानक एक पग भी आगे नहीं बढ़ पाता । काव्य का यत्किचित् कथानक प्रथम चार तथा अन्तिम तीन सर्गों तक सीमित है। शेष भाग, माघकाव्य के समान, जो कथानक के विनियोग में पुण्यकुशल का आदर्श है, सेना के सज्जीकरण, प्रस्थान, निवेश, वनविहार, जलकेलि, सूर्यास्त, सम्भोगक्रीडा, प्रभात, उद्यान आदि के अगणित वर्णनों से भरा पड़ा है। स्वयं में रोचक तथा महत्त्वपूर्ण होते हुए भी ये वर्णन कथाप्रवाह के मार्ग में दुर्लध्य बाधाएं उपस्थित करते हैं। निस्सन्देह यह तत्कालीन महाकाव्यपरिपाटी तथा कवि के आदर्श के अतिशय प्रभाव का परिणाम है, परन्तु पुण्यकुशल जैसे प्रतिभासम्पन्न कवि से यह आकांक्षा की जाती है कि वह परम्परा की कारा से मुक्त होकर कथानक को सुसंघटित बनाने में भी अपनी प्रतिभा का परिचय देता। इससे काव्य की गौरववृद्धि होती। वर्तमान रूप में, भ० बा० महाकाव्य रंग-बिरंगी कतरनों का विशाल वितान है। परन्तु इन कतरनों में से कुछ का सौन्दर्य सपाट पट की शालीनता की अपेक्षा कभी-कभी हृदय को अधिक आकृष्ट करता है । पुण्यकुशल के बुनकर की सफलता का इससे अधिक और क्या प्रमाण हो सकता है ? भ० बा० महाकाव्य के आधारस्रोत दर्पपूर्ण पराक्रम एवं ऊर्ध्वगामी परिणति के कारण भरत तथा बाहुबलि के युद्ध का उदात्त वृत्त जैन सम्प्रदाय की दोनों धाराओं में समान रूप से सम्मानित तथा प्रख्यात है । जिनसेन के आदिपुराण (नवीं शताब्दी ई०) और हेमचन्द्र (बारहवीं शताब्दी ई०) के त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में यह प्रसंग क्रमशः दिगम्बर तथा श्वेताम्बर परम्परा के अनुरूप वणित है । स्रोतों के कथागत साम्य के कारण पुण्यकुशल ने अपने काव्य के पल्लवन में उक्त दोनों ग्रन्थों को आधार बनाया है । जहां उनमें तात्त्विक अन्तर है, वहां उसने स्वभावतः श्वेताम्बर आचार्य हेमचन्द्र के विवरण को स्वीकारा है।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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