SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हीरसौभाग्य : देवविमलगणि १४६ जिस तरह नर कोकिल वसन्त के लिये आतुर रहता है (११.७६) । अहमदाबाद में गुरु के आगमन का समाचार तत्काल सर्वत्र फैल गया जैसे चन्दन की सुगन्ध मलयाचल की तलहटी में व्याप्त हो जाती है (११.११५)। इनके अतिरिक्त समासोक्ति, अर्थान्तरन्यास," अतिशयोक्ति," अनुप्रास, परिसंख्या५ कवि के प्रिय अलंकार है। हीरसौभाग्य में जो श्लेष है, वह बहुधा सरल है । 'संश्लेषदक्षा' विशेषण इसी रूप में सार्थक है। हीरसौभाग्य मुख्यत: उत्प्रेक्षा और उपमा का भण्डार है। देवविमल छन्दशास्त्र का कुशल विद्वान् है। काव्य में वसन्ततिलका, मालिनी, पृथ्वी जैसे लम्बे छन्दों का विभिन्न सर्गों के मुख्य छन्द के रूप में प्रयोग उसके छन्दशास्त्रीय पाण्डित्य का परिचायक है। चौदहवें सर्ग में सबसे अधिक चौबीस छन्द प्रयुक्त किये गये हैं। इसमें वातोर्मी, उपस्थित, चन्द्रवर्ती, कुसुमविचित्रा, भ्रमरविलसित आदि कुछ ऐसे छन्द हैं, जिनका अन्यत्र बहुत कम प्रयोग हुआ है। हीरसौभाग्य में व्यवहृत इकतीस छन्द इस प्रकार हैं--- उपजाति, शार्दूलविक्रीडित द्रुतविलम्बित, मन्दाक्रान्ता, हरिणी, वसन्ततिलका, उपेन्द्रवज्रा, मालिनी, इन्द्रवज्रा, रथोद्धता, इन्द्रवंशा, शिखरिणी, अनुष्टुप्, स्रग्धरा, स्वागता, वियोगिनी, वंशस्थ, भुजंगप्रयात, आर्या, पुष्पिताग्रा. तोटक, स्रग्विणी, पृथ्वी, भ्रमरविलसित, वातोर्मी, उपस्थित, चन्द्रवर्ती, कुसुमविचित्रा, गीति, दोधक, तथा औपच्छन्दसिक । उपजाति कवि का प्रिय छन्द है । हीरसौभाग्य का यही मुख्य आधार है। समाजचित्रण हीरसौभाग्य के दर्पण में समसामयिक समाज के कतिपय विश्वासों तथा मान्यताओं का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है । तत्कालीन समाज की ज्योतिष में दृढ़ आस्था थी जिसके कारण लोगों में कुछ तर्कहीन विश्वास प्रचलित थे । ये जनसामान्य तक सीमित हों, ऐसी बात नहीं । समाज का अभिजात तथा विद्वान् वर्ग भी इन अन्धविश्वासों के चंगुल में फंसा हुआ था। मुहूर्तों तथा शकुनों के फल पर समाज पूरा विश्वास करता था। इसीलिये प्रत्येक कार्य मुहूर्त तथा शकुनों का विचार करके किया जाता था। तत्कालीन शिक्षा अथवा पाठ्य-प्रणाली के सम्बन्ध में हीरसौभाग्य से प्रत्यक्ष जानकारी तो नहीं मिलती, किन्तु यदि हीरविजय द्वारा अधीत विविध विद्याओं को उस समय का सामान्य पाठ्यक्रम माना जाये, तो स्वीकार करना होगा कि तत्कालीन शिक्षा स्तर समुन्नत तथा सर्वांगीण था। उस पाठ्यक्रम में दर्शन के अतिरिक्त गणित, ज्योतिष, व्याकरण, साहित्य तथा काव्यशास्त्र आदि विद्याएं सम्मिलित थीं। ३२-३५ क्रमशः १.६७, ७.४६, ८.१३८, १३.२११ ३६. वही, ६.१०२, ११.४८ तथा १४.१७०
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy