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________________ १४८ जैन संस्कृत महाकाव्य विद्वत्तापूर्ण प्रयोगों के द्वारा अपने व्याकरण ज्ञान का संकेत किया है। उसे कर्मणि लिट् तथा लुङ, नामधातु तथा क्वसु-प्रत्यान्त' प्रयोग विशेष रुचिकर हैं। परंतु उसे यह भली भाँति ज्ञात है कि भाषा के सौन्दर्य का आधार पाण्डित्य नहीं, सहजता है । अतः समर्थ होते हुए भी उसने भाषा को अधिक अलंकृत नहीं किया है। हीरसौभाग्य की भाषा में कुछ दोष भी दिखाई देते हैं। जम्भनिशुम्भकुम्भिनम् (२.६६), वचीकान्तहरिन्महीधरे (२.७१), शिवशवलिनीवरोद्वहोपयमार्थम् (६.११८), जलधिभवनजम्भारातिसारंगचक्षुदिगवनिधरमूर्धालम्बिबिम्बो दिनादौ (१५.८), अब्धिनेमीतमीशः (११.१), गिरं श्रोत्रवमध्विनीनां प्रणीय (११.१३), करिकदनकपर्दक्रोडलीलायमानत्रिदिवसदनपाथोनाथपद्माननेव (१५.४४) आदि क्लिष्ट प्रयोगों की हीरसौभाग्य में कमी नहीं है। देवविमल के कुछ प्रयोग व्याकरण की दृष्टि से चिन्त्य हैं । परोलक्षान् । (६.१२३), अमारिरेषां न च रोचते (१४.१६६), तस्याभितोऽभूत् (१७.१६६) निश्चित रूप से अशुद्ध हैं । यवन पात्रों से सम्बन्धित होने के कारण हीरसौभाग्य में शेख, फते, खुदा, गाज़ी, स्फुर-मान (फरमान), भिस्ति (बहिश्त, स्वर्ग), दोयकि (दोज़ख) आदि फारसी के शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। देवविमल सुरुचिपूर्ण अलंकारों के समर्थक हैं। अलंकारों का जो प्रयोग काव्य-सौन्दर्य की अभिव्यक्ति में बाधक हो, वह उन्हें ग्राह्य नहीं। अलंकार-प्रयोग में देवविमल का खास ध्यान अप्रस्तुत विधान पर रहा है। पहले कहा गया है, हीरसौभाग्य में ऐसे अप्रस्तुत बहुत कम हैं, जो प्रस्तुत विषय/भाव के विशदीकरण में विध्न डालते हों। देवविमल ने अनूठे अप्रस्तुतों से किस प्रकार भावाभिव्यक्ति को समर्थ बनाया है, इसका सविस्तार विवेचन पहले किया जा चुका है। उसके अप्रस्तुत अधिकतर उत्प्रेक्षा के बाने में प्रकट हुए हैं, इसकी आवृत्ति करना भी आवश्यक नहीं है। अतिशयोक्ति, अप्रस्तुत प्रशंसा, अर्थान्तरन्यास आदि भी उसके अप्रस्तुतविधान के माध्यम हैं। देवविमल की उपमाएं उसकी उदात्त कल्पनाशीलता की साक्षी हैं । हीरसौभाग्य में उपमाओं का रोचक वैविध्य है। उसकी उपमाओं के अप्रस्तुत दर्शन, पुराण, प्रकृति, लोक व्यवहार आदि जीवन के विभिन्न पक्षों से ग्रहण किए गये हैं। बालक हीर ने लिपिज्ञान से शास्त्र में ऐसे प्रवेश किया जैसे यात्री गोपुर से नगर में प्रविष्ट होता है (३.७५) । अकबर आचार्य के आगमन की उसी तरह अधीरता से प्रतीक्षा कर रहा था २६. कैश्चिन्मुदानति तमोऽप्यति प्रावति पुग्ये कुमथान्न्यति । वही, १३.७५ ३०. यस्त्रियामादयिते कलंकति द्विपेन्द्रति क्षीरधिसूनुबोरुधि । समारविन्दे तुहिनोदवृन्दति व्रताम्बुबाहेम्वपि गन्धबाहति ॥ वही, १४.४८ ३१. सुखं स्वकीये सदने निषेदुषी मुदं महास्वप्नजुषं प्रदुषी । वही, २.८८
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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