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________________ यवुसुन्दरमहाकाव्य : पद्मसुन्दर १०६ कर्म नहीं है यद्यपि उसमें भी देवों, गन्धर्वों आदि का निर्भ्रान्त संकेत मिलता है । वर्णन की लौकिक प्रकृति के अनुरूप पद्मसुन्दर ने अभ्यागत राजाओं का परिचय देवे का कार्य कनका की सखी को सौंपा है, जो कालिदास की सुनन्दा के अधिक निकट है । श्रीहर्ष ने रघुवंश के छठे सर्ग के इन्दुमती स्वयम्वर की सजीवता को विकृत बना कर उसे एक रूढि का रूप दे दिया है। सातवें सर्ग में वरवधू का विवाह पूर्व आहार्य-प्रसाधन नैषध के पन्द्रहवें सर्ग का, भाव, भाषा तथा घटनाक्रम में, इतना ऋणी है कि उसे श्रीहर्ष के प्रासंगिक वर्णन की प्रतिमूर्ति कहना सर्वथा उचित होगा । कहना न होगा, नैषध का यह वर्णन स्वयं कुमारसम्भव के सप्तम सर्ग पर आधारित है जहां इसी प्रकार वरवधू को सजाया जा रहा है । विवाह-संस्कार तथा विवाहोत्तर सहभोज के वर्णन (अष्टम सर्ग) में पद्मसुन्दर ने अपने शब्दों में नैषध के सोलहवें सर्ग की आवृत्ति मात्र कर दी है । नैषध के समान इसमें भी बारातियों और परिवेषिकाओं का हास-परिहास बहुधा अमर्यादित है । खेद है, पद्मसुन्दर ने अपनी पवित्रतावादी वृत्ति को भूल कर इन अश्लीलताओं को भी काव्य में स्थान दिया है । अगले दो सर्ग नैषध से स्वतन्त्र हैं । अन्तिम दो सर्ग, जिनमें क्रमशः रतिक्रीडा और सन्ध्या, चन्द्रोदय आदि के वर्णन हैं, नैषध के अत्यधिक ऋणी हैं । कालिदास, कुमारदास तथा श्रीहर्ष के अतिरिक्त पद्मसुन्दर ही ऐसा कवि है जिसने वरवधू के प्रथम समागम का वर्णन किया है । स्वयं श्रीहर्ष का वर्णन कुमारसम्भव अष्टम सर्ग से प्रभावित है । श्रीहर्ष ने कालिदास के भावों को ही नहीं, रथोद्धता छन्द को भी ग्रहण किया है । यदुसुन्दर के ग्यारहवें सर्ग में भी यही छन्द प्रयुक्त किया गया है । बारहवें सर्ग का चन्द्रोदय आदि का वर्णन, नैषध की तरह (सर्ग २१ ) नवदम्पती के सम्भोग के लिये समुचित वातावरण निर्मित करता है । इसमें भी श्रीहर्ष के भावों तथा शब्दावली की कमी नहीं है । वस्तुतः काव्य में मौलिकता के नाम पर भाषा है, यद्यपि उसमें भी श्रीहर्ष की भाषा का गहरा पुट है । पद्मसुन्दर की काव्यप्रतिमा नैषधचरित के इस सर्वव्यापी प्रभाव के कारण पद्मसुन्दर को मौलिकता का श्रेय देना अन्याय होगा । यदुसुन्दर में जो कुछ है, वह प्रायः सब श्रीहर्ष की पूँजी है । फिर भी इसे सामान्यतः पद्मसुन्दर की 'मौलिक' रचना मान कर कवि की काव्यप्रतिभा का मूल्याङ्कन किया जा सकता है । पद्मसुन्दर के पार्श्वनाथकाव्य में प्रचारवादी कवि का जो बिम्ब उभरता है, वह चमत्कारवादी यह स्पष्टतः नैषध के अतिशय प्रभाव का परिणाम है । ग्रन्थि ' से काव्य को जटिल बनाना नहीं है परन्तु उसका स्वर मुखर है पर यदुसुन्दर आलंकारिक का बिम्ब है । पद्मसुन्दर का उद्देश्य ' ग्रन्थ काव्य नैषध की मूलवृत्ति
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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