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________________ १०८ जैन संस्कृत महाकाव्य (६.५८-११०) पर व्यय कर दिया है; पद्मसुन्दर ने समान प्रभाव तथा अधिक स्पष्टता के साथ उसे मात्र चौबीस पद्यों में निबद्ध किया है। अगले ४७ पद्यों से परिवेष्टित तृतीय सर्ग का अंश नैषध के आठवें सर्ग का प्रतिरूप है । दूत का आगमन, कनका द्वारा उसकी स्तुति, अपने परिचय के विषय में उसका वाग्छल तथा उसका राजकुमारी को कुबेर का वरण करने को प्रेरित करना नैषध का अनुगामी है। कुबेर के पूर्व राग का वर्णन (३.१२२-४१) नैषध के आठवें सर्ग में दिक्पालों की विरह वेदना की प्रतिध्वनि मात्र है. (८.६४-१०८) । अन्तिम साठ पद्य नैषध के नवम सर्ग का लघु संस्करण प्रस्तुत करते हैं। उनमें विषयवस्तु की भिन्नता नहीं हैं और भाषा तथा शैली में पर्याप्त साम्य है । दूत का अपना भेद सुरक्षित रखने का प्रयत्न, नायिका का उसका नाम-धाम जानने का आग्रह तथा दूत के प्रस्ताव को ठुकराना, नायिका के करुण विलाप से द्रवित होकर दूत का आत्म-परिचय देना---. ये समूची घटनाएं दोनों काव्यों में पढी जा सकती हैं। श्रीहर्ष को इस संवाद की प्रेरणा कुमारसम्भव के पंचम सर्ग से मिली होगी। वहां भी शिव भेस बदल कर आते हैं और अन्त में अपना वास्तविक रूप प्रकट करते हैं। नैषधचरित तथा यदुसुन्दर में दमयन्ती और कनका दूत की उक्तियों का मुंह-तोड़ जवाब देती हैं जबकि पार्वती के पास बटु के तर्को का समर्थ उत्तर केवल यही है-न कामवृत्तिवंचनीयमीक्षते (कुमार० ५.८२) । कालिदास के उमा-बटु-संवाद में मनोवैज्ञानिक मामिकता है । श्रीहर्ष और पद्मसुन्दर इस कोमल प्रसंग में भी चित्रकाव्य के गोरखधन्धे में फंसे रहते हैं। उन्हें रोती हुई दमयन्ती तथा कनका ऐसी दिखाई देती हैं, जैसे वे आंसू गिरा कर 'संसार' को 'ससार' तथा 'दांत' को 'दात' बनाती हुई बिन्दुच्युतक काव्य की रचना कर रही हों । पद्मसुन्दर के स्वयम्वर-वर्णन पर नैषध का प्रभाव स्पष्ट है । श्रीहर्ष का स्वयम्वर-वर्णन अलौकिकता की पों में दबा हुआ है। उसमें पृथ्वीतल के शासकों के अतिरिक्त देवों, नागों, यक्षों, गन्धों आदि का विशाल जमघट है । आगन्तुक प्रत्याशियों का विवरण देने के लिये वहां वाग्देवी की नियुक्ति वर्णन की काल्पनिकता का संकेत है। श्रीहर्ष ने पूरे पांच सर्गों (१०-१४) में जमकर स्वयंवर का वर्णन किया है । यदुसुन्दर का वर्णन भी इसके समान ही कथानक के प्रवाह में अवरोध पैदा करता है । पद्मसुन्दर ने नैषध में वर्णित बारह राजाओं में से दस को यथावत् ग्रहण किया है, पर वह नैषध की भाँति अतिमानवीय १८. यदुसुन्दर, ३.१५०-१५७; नैषधचरित, ६.२७-३२ । १६. ससारमात्मना तनोषि संसारमसंशयं यतः। नैषध०, ६-१०४ । तद्विन्दुच्युतकमश्रुजबिन्दुपातान्मां दांतमेव किमु दातमलंकरोषि । यदुसुन्दर, ३.१९०।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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