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________________ देवकीर्ति ने आसन से उठकर महाराज और महारानी को आशीर्वाद दिया। महाराज और महारानी ने चारणदेव को नमस्कार किया। विक्रम ने कहा'क्षमा करें, चारणदेव! आपको मैंने इतने समय तक बिठाये रखा....' 'कृपानाथ! ऐसा न कहें....मेरा अहोभाग्य है कि आज मैं आपके आवास में आ सका और सती महारानी को देख सका।' देवकीर्ति ने कहा। फिर तीनों आसन पर बैठे। विक्रमादित्य ने देवकीर्ति से कहा-'अब आप महाराज शालिवाहन की नर-द्वेषिणी कन्या की बात कहें। महादेवी, वह बात सुनना....' बीच में देवकीर्ति बोल पड़ा- 'महादेवी को बात सुनकर बहुत आनन्द आयेगा और मेरी भावना को भी सहारा मिलेगा।' कमलावती ने कहा- 'आपकी भावना को सहारा.....समझी नहीं।' 'जब आप बात सुनेंगी तब सब कुछ समझ में आ जायेगा । दक्षिण भारत में प्रतिष्ठानपुर नाम का एक बड़ा राज्य है। महाराज शालिवाहन वहां राज्य करते हैं। पटरानी का नाम विजया है। दोनों संस्कारी और धार्मिक हैं। राजा के पांच पुत्र और एक पुत्री है। पुत्री का रूप अनुपम है....स्वर्गलोक में भी ऐसा रूप दुर्लभ है। वह नृत्य और संगीत में निष्णात है। वह सतरह वर्ष की है और रूपलावण्य के योग से आज भुवनमोहिनी बन गई है। किन्तु राजकन्या जब सात वर्ष की थी तब उसे पूर्वजन्म का ज्ञान हुआ। वह उस भव में अपने पति द्वारा अत्यन्त पीड़ित और उत्तापित की गई थी, किन्तु किसी पुण्य के संयोग से वह इस जन्म में राजा के यहां राजकुमारी बनी। अपने पति द्वारा किये गए अन्याय की स्मृति के कारण वह पुरुषद्वेषिणी बन गई। जब वह तेरह वर्ष की हुई, तब यह द्वेष पराकाष्ठा पर पहुंच गया। उसके पास कोई भी पुरुष जाता तो वह उसका वध करा डालती। राजा इस वृत्ति से व्याकुल हो उठा। महारानी भी व्यथित हो गई....एकाकी सुन्दर कन्या के लिए क्या किया जाए? उस कन्या के हाथ से किसी भी पुरुष का वध न हो, इसलिए महाराजा शालिवाहन ने उसके लिए एक अलग महल बनवाकर वहां रखा है। वहां काम करने तथा रक्षा आदि के कार्य में स्त्रियां ही नियुक्त हैं। इस प्रकार वह राजकुमारी अब सतरह वर्ष पूरे कर रही है। उसके भाई भी वहां नहीं आ-जा सकते, केवल पिता शालिवाहन वहां जा सकते हैं। उनके सिवा कोई भी पुरुष यदि उस महल में प्रवेश करता है, वह मरा हुआ ही बाहर निकलता है। राजकुमारी उसका शिरच्छेद करा देती है। राजकुमारी अत्यन्त सुन्दर है। उसकी सुन्दरता का वर्णन करने में मैं भी असमर्थ हूं। उस राजकन्या को कोई अपने वश में कर सके, ऐसा पुरुष मैंने आज तक कहीं नहीं देखा....केवल आपको देखने पर मन में आशा बंधी है कि ५८ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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