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________________ दोनों ने कुछ खाया। खाद्य समाप्त हो गया। ऊंट पर सारा सामान लादकर प्रवास प्रारम्भ कर दिया। वास्तव में ऊंट जातिवान् था। उसकी गति में कहीं कोई त्रुटि नहीं आ रही थी-गति की तीव्रता भी वही थी। __ मध्याह्न के समय वे एक गांव के परिसर में पहुंचे। गांव में एक छोटी पांथशाला थी। वहां विश्राम करने के लिए वे रुके। पांथशाला के मुनीम ने उनका सत्कार किया। विक्रम ने मुनीमजी के द्वारा ऊंट के लिए चारा-पानी की व्यवस्था कराई और गरम रसोई की व्यवस्था कर उत्तम प्रकार की मिठाई मंगाकर अपने पास वाले डिब्बे भर लिये। ___ मुनीमजी से यह ज्ञात हुआ कि इस मध्यम गांव में वस्त्र के चार-पांच व्यापारी हैं और एक व्यापारी के पास उत्तम वस्त्र मिल सकते हैं। विक्रम ने उस व्यापारी को पांथशाला में बुला भेजा। वह व्यापारी वस्त्र लेकर आया। वस्त्र मध्यम कोटि के थे किन्तु विक्रम ने स्वयं के लिए एक जोड़ी वस्त्र और लक्ष्मीवती के लिए दो जोड़ी वस्त्र खरीद लिये। __ अपराह्न में वीर विक्रम ने पुन: प्रवास प्रारम्भ किया। अब मार्ग भी साफ था-झाड़-झंखाड़ नहीं थे। विक्रम ने सोचा, यदि मार्ग ऐसा ही रहा तो रातभर प्रवास कर लेना चाहिए। वैसा ही हुआ। रात्रि का प्रथम प्रहर पूरा हुआ, तब विक्रम ने राजकन्या से कहा-'देवी! विश्राम करना हो तो स्वच्छ स्थान की गवेषणा करूं?' 'कोई पल्ली या गांव हो तो अच्छा रहे।' 'यह मार्ग मेरे लिए सर्वथा अपरिचित है, किन्तु मैंने पांथशाला के मुनीम से जाना था कि लगभग पचास योजन की दूरी पर लक्ष्मीपुर नाम की एक नगरी है, यदि हम रात-भर प्रवास करें तो उस नगरी में पहुंच सकते हैं।' 'मुझे कोई आपत्ति नहीं है।' 'फिर भी हमें अपररात्रि में कहीं-न-कहीं विश्राम करना ही पड़ेगा।' विक्रम ने कहा। राजकन्या सहमत हो गई। प्रवास अविरत चालू रहा। ऊंट भी एक-सी गति से दौड़ा जा रहा था। रात्रि का तीसरा प्रहर पूरा हुआ। लक्ष्मीवती को नींद आ रही थी। विक्रम ने पूछा- 'आराम करना है न?' 'नहीं....मेरी आंखें कुछ भारी हो रही हैं....किन्तु मैं सावेचत हूं।' लक्ष्मी ने कहा। वीर विक्रमादित्य २६५
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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