SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ने पूछा- 'महाराज! आज आप अस्वस्थ तो नहीं हैं ? इतने विचार-मग्न कैसे हो जाते हैं?' 'देवी ! मैं पूर्ण स्वस्थ हूं, किन्तु उत्तररात्रि में मैंने एक विचित्र स्वप्न देखा था। वह मेरे मन पर अमिट छाप छोड़ चुका है। मैं उसे विस्मृत करना चाहता हूं, पर वह मानस-पटल से हटता ही नहीं।' 'स्वप्न?' 'हां, देवदमनी! वैसे तो मुझे स्वप्न आते ही नहीं, किन्तु इस रात्रि के स्वप्न में तुम थी, इसलिए मैं उसे भुला नहीं पा रहा हूं।' देवदमनी ने हंसते हुए कहा- 'महाराज! यदि आपकी इच्छा हो तो वह स्वप्न आप मुझे बताएं।' विक्रम दो क्षण मौन रहे, फिर देवदमनी की ओर देखकर बोले-'देवी! स्वप्न बहुत विचित्र और अनोखा है। मैं ऐसे पर्वत पर चढ़ा, जिसको मैंने कभी नहीं देखा था। भूख और प्यास से मैं आकुल-व्याकुल हो रहा था। संध्या बीत चुकी थी। रात्रि का अंधकार सघन होता जा रहा था। मेरे में चलने की शक्ति भी चुक गई थी। वहां कुछ दूरी पर एक छोटी झोंपड़ी दिखाई दी। मैं ज्यों-ज्यों वहां पहुंचा। उस झोपड़ी में वनवासी रहते थे। उन्होंने मुझे भोजन कराया। मुझे बहुत संतोष हुआ। वे वनवासी बोले-भाई! आज हमारे माताजी का उत्सव है। क्या तुम देखने चलोगे ? मैं अकेला बैठा-बैठा क्या करता। उनके साथ उत्सव देखने चल पड़ा। हम एक विशाल मंदिर के प्रांगण में पहुंचे। मंदिर में इतना प्रकाश था कि दिन का आभास हो रहा था। मन्दिर से सौरभ निकल रही थी। मैं एकटक मंदिर को देख रहा था। मैं चौंका। मुझे लगा कि मंदिर के सभामंडप में अनेक देवीदेवता बैठे हैं और उनके समक्ष तुम नृत्य कर रही हो।' देवदमनी चौंकी, किन्तु उसी क्षण हंसकर बोली- 'क्या आपने मुझे देखा? असम्भव । देवी-देवताओं के मध्य मैं कैसे जा सकती हूँ?' किन्तु मेरा स्वप्न सुनने जैसा है। जैसे ही तुमने पहला नृत्य पूरा किया, तब देवताओं में श्रेष्ठ एक देव ने तुम पर पुष्पमाला फेंकी, तुमने वह ले ली और उसे दूर बैठी पांच-छह सुन्दर स्त्रियों की ओर उछाल दी।' 'महाराज ! यह स्वप्न कभी सत्य नहीं हो सकता। आपको शायद भ्रम हुआ है।' 'नहीं, देवी ! मुझे भ्रम नहीं हुआ है। मैं एक बार जिसे देख लेता हूं, उसे कभी भूलता नहीं।' वीर विक्रम ने कहा। __ 'नहीं, महाराज! यह स्वप्न भ्रम ही है, और कुछ नहीं।' २३० वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy