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________________ 318 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन यथार्थ में पुण्य और पाप अपने को या पर को सुख-दुख पहुंचाने मात्र से नहीं होता है, अपितु अपने शुभाशुभ परिणामों पर उनका होना निर्भर करता है। जो सुख-दुख शुभ परिणामों से जन्य है, या उनके जनक हैं, उनसे पुण्य का आस्रव होता है और जो अशुभ परिणामों से जन्य या उनके जनक हैं, वे नियम से पापास्रव के कारण हैं। यही वस्तु-व्यवस्था है। पुण्य और पाप की इस सैद्धान्तिक अवधारणा के आधार पर आचार्यों ने शरीर, वचन और मन की प्रवृत्तियों का शुभ और अशुभ के रूप में वर्गीकरण किया है और उन्हें पुण्य या पाप के बन्ध का कारण कहा है। आ. समन्तभद्र ने लिखा है कि योग के शुभ और अशुभ दो भेद हैं। अहिंसादि शुभ कार्य राग हैं। सत्य बोलना, मित बोलना, हितकारी बोलना आदि शुभ वाक्योग है। पाँचों परमेष्ठियों में भक्ति रखना शुभ मनोयोग है। इनके विपरीत तीन तरह के अशुभ योग हैं। प्राण लेना, चोरी करना, मैथुन आदि अशुभ काययोग हैं। झूठ, कठोर, असभ्य भाषण करना अशुभ वाक्योग है। वध चिन्तन, ईर्ष्या आदि अशुभ मनोयोग से संचालित होते हैं। अतः पापबन्ध होता है। वीरोदय में भी पुण्य-पाप का संक्षिप्त विवेचन किया गया है - अर्थान्मनस्कारमये प्रधानमघं सघं संकलितुं निदानम् । वैद्यो भवेद्भुक्तिरूधेव धन्यः सम्पोषयन् खट्टिकको जघन्यः ।। 16 ।। -वीरो.सर्ग. 161 जीव का मानसिक अभिप्राय ही पाप करने या नहीं करने में प्रधान कारण है। रोगी को लंघन कराने वाला वैद्य धन्य है, वह पुण्य का उपार्जक है किन्तु बकरे को खिला-पिला कर पुष्ट करने वाला खटीक जघन्य है। पापी है। कर्म सिद्धान्त प्रत्येक कर्म का फल अवश्य होता है। चाहे हमें इसका ज्ञान हो या नहीं। जीव जन्म से मरण तक जितने कर्म करता है उन सबका फल इसी जीवन में पाना कठिन है। इसलिए पुनर्जन्म की व्यवस्था है। मानव
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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