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________________ भगवान महावीर के सिद्धान्तों का समीक्षात्मक अध्ययन को शिक्षा देते हैं, तो उसके अनेक सम्बन्धियों को सुख पहुँचता है । पूर्ण सावधानी के साथ ईर्यापथ शोध कर चलते हुए भी कभी - कभी दृष्टिपथ से हट कर कोई जीव अचानक कूद कर पैर तले आ जाता है और पैर से दब कर मर जाता है। कार्योत्सर्ग पूर्वक ध्यानावस्था में स्थित होने पर भी यदि कोई जीव तेजी से आकर उनके शरीर से टकरा जाता है और मर जाता है तो इस तरह भी उस जीव के मार्ग में बाधक होने से वे उसके दुःखी होने के कारण बनते हैं। ऐसे और भी अनेक उदाहरण हैं, जिनमें वे दूसरों के सुख-दुख के कारण बनते हैं। यदि दूसरों के सुख-दुख का निमित्त कारण बनने से ही आत्मा में पुण्य-पाप का आस्रव - बन्ध होता है, तो फिर ऐसी स्थिति में कषाय रहित साधु कैसे पुण्य - पाप के बन्धन से मुक्त हो सकते हैं ? यदि वे पुण्य-पाप के बन्धन में पड़ते हैं तो मोक्ष की कोई व्यवस्था नहीं बन सकती, क्योंकि बन्ध का मूल कारण कषाय है और अकषाय-भाव मोक्ष का कारण है । 317 यहाँ पर यदि कहा जाए कि उन साधुओं (अकषाय जीवों) को दूसरे को सुख - दुःख देने का अभिप्राय नहीं होता, इसलिए दूसरों की सुख - दुःख की स्थिति में निमित्त कारण होने से वे बन्ध को प्राप्त नहीं होते, तो इस प्रकार यह कहना कि दूसरों के मात्र सुख-दुख से पुण्य-पाप का आस्रव होता है, असत्य है । फिर अपने में भी मात्र सुख-दुख से पुण्य-पाप नहीं होता । वहाँ अभिप्राय का होना अनिवार्य है । इन सबका अर्थ यह है कि अभिप्राय को लिए हुए दुःख-सुख का उत्पादन पुण्य-पाप का हेतु है । अभिप्राय विहीन दुःख-सुख का उत्पादन पुण्य-पाप का हेतु नहीं है । पापं ध्रुवं परे दुःखात् पुण्यं हि सुखतो यदि । अचेतनाकषायौ च अद्वैयातां निमित्ततः ।। पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात् पापं च सुखतो यदि । वीतरागो मुनिर्विद्धास्ताभ्यां युंयान्निमित्ततः । । सुख - दुःख चाहे अपने को उत्पन्न किये जाये और चाहे पर को, यदि विशुद्धि (शुभ परिणामों) अथवा संक्लेश से पैदा होते हैं या उन परिणामों के जनक हैं, तो उससे क्रमशः पुण्यास्रव और पापास्रव होता है।
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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