SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 322
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान महावीर के सिद्धान्तों का समीक्षात्मक अध्ययन 293 पुराणों में भी धर्म के महत्त्व को स्वीकार करते हुए कहा है कि अधर्मी पुरूष यदि काम और अर्थ सम्बन्धी क्रियायें करता है, तो उसका फल बाँझ स्त्री के पुत्र के समान होता है। उससे किसी प्रकार के कल्याण की सिद्धि नहीं होती । भारतीय संस्कृति में धर्म को इतना महत्त्व इसलिए दिया गया है, क्योंकि यह समाज में शान्ति और सुव्यवस्था बनाये रखता वीरोदय में धर्म के महत्त्व - को आचार्य श्री ने इस प्रकार प्रतिपादित किया है - आपन्नमन्यं समुदीक्ष्य मास्थास्तूष्णीं वहेः किन्तु निजामिहास्थाम् । स्वेदे बहत्यन्यजनस्य रक्त-प्रमोक्षणे स्वस्य भवे प्रसक्तः।। 3 ।। -वीरो.सर्ग.16। दूसरे को आपत्ति में पड़ा देखकर स्वयं चुप न बैठकर, उसके संकट को दूर करने का शक्ति भर प्रयत्न करो। दूसरों के द्वारा पसीना बहाये जाने पर तुम खून बहाने के लिए तैयार रहो। सूक्तियाँ - 1. खड्गेनायस-निर्मितेन न हतो, वजेण वै हन्यते, तस्मान्निजये नराय च विपद्-दैवेन त तन्यते। दैवं किन्तु निहत्य यो विजयते तस्यात्र संहारकः, कः स्यादित्यनुशासनाद्विजयते वीरेषु वीरे सकः ।। 16/30 || जो मनुष्य लोहे की बनी खड्ग से नहीं मारा जा सकता, वह वज्र से निश्चयतः मारा जाता है। जो वज से नहीं मारा जा सकता, वह दैव से अवश्य मारा जाता है, किन्तु जो महापुरूष देव को भी मारकर विजय प्राप्त करता है, उसका संहार करने वाला इस संसार कौन है ? वह वीरों का वीर महावीर ही इस संसार में सर्वोत्तम विजेता है, वह सदा विजयशील बना रहे। 2. वहावशिष्टं समयं न कार्य मनुष्यतामंच कुलन्तुनार्य ! नार्थस्य दासो यशसश्च भूयाद् धृत्वा त्वधे नान्यजनेऽभ्यसूयाम् ।।
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy