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________________ 248 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन परिच्छेद - 1 सामाजिक चित्रण वर्ण व्यवस्था जैनधर्म, वर्ण-व्यवस्था तथा उसके आधार पर सामाजिक-व्यवस्था को स्वीकार नहीं करता। सिद्धान्त-ग्रन्थों में वर्ण और जाति शब्द नामकर्म के प्रभेदों में आये हैं। अनुश्रुति के अनुसार सभ्यता के आदि युग में, जिसे शास्त्रीय भाषा में "कर्मभूमि का प्रारम्भ" कहा जाता है, ऋषभदेव ने असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य का उपदेश दिया, उसी आधार पर सामाजिक व्यवस्था बनी। लोगों ने स्वेच्छा से कृषि आदि कार्य स्वीकृत कर लिये। कोई कार्य छोटा बड़ा नहीं समझा गया। इसी तरह कोई भी कार्य धर्म धारण करने में रूकावट नहीं माना गया। बाद के साहित्य में यह अनुश्रुति तो सुरक्षित रही, किन्तु उसके साथ में वर्ण-व्यवस्था का सम्बन्ध जोड़ा जाने लगा। नवमी शताब्दी में आकर जिनसेन ने अनेक वैदिक मन्तव्यों पर भी जैनछाप लगा दी। जटासिंहनन्दि ने चतुर्वर्ण की लौकिक और श्रौत (स्मार्त) मान्यताओं का विस्तार से खण्डन करके लिखा है कि कृतयुग में तो वर्णभेद था नहीं, त्रेतायुग में स्वामी-सेवक भाव आ चला था। द्वापर युग में निकृष्ट भाव होने लगे और मानव-समूह नाना वर्गों में विभक्त हो गया। कलयुग में तो स्थिति और भी बदतर हो गयी। शिष्ट लोगों ने क्रिया-विशेष का ध्यान रखकर व्यवहार चलाने के लिए दया, अभिरक्षा, कृषि और शिल्प के आधार पर चार वर्ण कहे हैं, अन्यथा वर्ण-चतुष्टय बनता ही नहीं।' रविषेणाचार्य (676 ई.) ने पूर्वोक्त अनुश्रुति तो सुरक्षित रखी, किन्तु उसके साथ वर्णों का सम्बन्ध जोड़ दिया। उन्होंने लिखा है कि - "ऋषभदेव ने जिन व्यक्तियों को रक्षा-कार्य में नियुक्त किया, वे लोक में क्षत्रिय कहलाये, जिन्हें वाणिज्य, कृषि, गो-रक्षा आदि व्यापारों में
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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