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________________ वीरोदय का स्वरूप को धारण कर श्मसानपने को प्राप्त हो रही है। उन मन्दिरों की देहली निरन्तर अतुल रक्त से रञ्जित होकर यमस्थली - सी प्रतीत हो रही है। इसप्रकार संसार - दशा के बारे में सोचकर जगत् का कल्याण करने के लिए उन्होंने विवाह - प्रस्ताव का बहिस्कार कर दिया । यथा अहो पशूनां धियते यतो बलिः श्मसानतामञ्चति देवतास्थली । यमस्थली वाऽतुलरक्तरञ्जिता विभाति यस्याः सततं हि देहली ।। 13 ।। वीरो.सर्ग.9 - 97 - संसार की क्षणभंगुरता का ज्ञान जो पेड़-पौधे वसन्त ऋतु के आगमन से हरे-भरे हो जाते हैं, ग्रीष्म ऋतु के आगमन से वे मुरझा भी जाते हैं- प्रकृति के इस व्यापार को देखकर वर्धमान को संसार की क्षणभंगुरता का ज्ञान हुआ। उनके हृदय में वैराग्य भावना जागी। सभी देवों ने उनकी इच्छा का अनुमोदन किया। तब शीघ्र ही वन जाकर, वस्त्राभूषण त्यागकर, केशों को उखाड़ कर, मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की दशमी तिथि को दैगम्बरी दीक्षा लेकर मौन धारण कर लिया। तत्पश्चात् उन्हें मन:पर्यय ज्ञान हुआ। उन्होंने अन्य धर्मानुयायियों से अलग अपना स्वतन्त्र मार्ग चुना । अपना 'वीर' नाम सार्थक करने के लिये तपश्चरण के समय बड़ी-बड़ी विपतियों का सामना कर उन सब पर विजय प्राप्त की । भ. महावीर के पूर्व-भव एक दिन भगवान महावीर ने ध्यान में अपने सम्पूर्ण पूर्व-भव जान लिये। पहले वे पुरूरवा नाम के भील थे। तत्पश्चात् आदि तीर्थकर ऋषभदेव के पौत्र मारीचि के रूप में उन्होंने जन्म लिया । मारीचि ही स्वर्ग का देव होकर ब्राह्मण-योनि में जन्मा । फिर वह अनेक कुयोनियों में जन्म लेता हुआ एक बार शाण्डिल्य ब्राह्मण और उसकी पाराशरिका नाम की स्त्री का स्थावर नामक पुत्र हुआ । प्रव्रज्या के फलस्वरूप वह माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ। इसका उल्लेख वीरोदय में इस प्रकार किया गया है। --
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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