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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 469 से तुच्छ एवं उपेक्षिता माटी से निर्मित कुम्भ को स्वर्णनिर्मित कुम्भ से भी अधिक श्रेष्ठ बतला कर उसे ऐसे शिखर बिन्दु पर आसीन कर दिया है, जहाँ से वह और अधिक महिमायुक्त प्रतीत होने लगती है। किन्तु यह पद उसे सहज ही प्राप्त नहीं हो गया है अपितु इसके लिए उसने अपने अन्तर्मन को टटोला है, उसमें निहित दोषों को पहचान कर उन्हें जलाया है, उनसे मुक्ति प्राप्त की है : "मैं निर्दोष नहीं हूँ/दोषों का कोष बना हुआ हूँ मुझ में वे दोष भरे हुए हैं। जब तक उनका जलना नहीं होगा मैं निर्दोष नहीं हो सकता।" (पृ. २७७) अन्तत: शुद्ध एवं बुद्ध, चेतन होने के पश्चात् ही इस पद की अधिकारिणी हुई है । वस्तुत: देखा जाए तो मानव को भी श्रेष्ठ एवं महिमायुक्त बनने के लिए उक्त प्रक्रिया से ही गुज़रना पड़ता है, क्योंकि जब तक वह कषाय से युक्त रहेगा उसकी वृत्ति सात्त्विक नहीं हो सकती । सात्त्विक वृत्ति के अभाव में कभी भी मानव मानवता को प्राप्त नहीं कर सकता, फलस्वरूप अपने जीवन के उत्कर्ष बिन्दु पर भी नहीं पहुँच सकता । अत: इन सबके लिए आवश्यक है कि अपने भीतर स्थित परिग्रहों एवं कषायों का त्याग करे । इसी तथ्य को कवि ने माटी के माध्यम से कुशलतापूर्वक अभिव्यक्त किया है। वस्तुत: आचार्य विद्यासागरजी ने माटी को विभिन्न अभिनव विशेषताओं से सम्पृक्त करने के साथ ही उसके माध्यम से अन्य विविध तथ्यों की अभिव्यक्ति भी की है, जिनमें मानव के वर्णन का भी प्रमुख स्थान है। कवि ने अनेक स्थलों पर माटी को आधार बनाकर जैन धर्म के दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, जो कहीं-कहीं बौद्धिकता के आधिक्य के कारण बोझिल-से प्रतीत होते हैं। ऐसे स्थल अत्यल्प हैं, अधिकांश स्थलों पर, जैसा कि श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन का कहना है कि दार्शनिक तत्त्वों का विवेचन माटी-धरती के संवाद के रूप में अथवा अन्य रूप में काव्य की धारा में सहज प्रवाहित होते चले गए हैं। जैसे-कुम्भकार के यहाँ नगर सेठ के नौकर द्वारा माटी से निर्मित कुम्भ को सात बार बजाने पर उसमें से नि:सृत सात प्रकार की ध्वनियों का कवि द्वारा दार्शनिकता के स्तर पर विवेचन करना अथवा 'उत्पाद-व्ययधौव्य-युक्तं सत्' सूत्र का वर्णन करना, इत्यादि । इनमें वर्णित जीवन दर्शन सायास निर्मित न होकर कवि की प्रचण्ड प्रतिभा के फलस्वरूप उसकी भाव लहरियों से सहज ही निःसृत होता गया है : "कुम्भ के मुख पर प्रसन्नता है मुक्तात्मा-सी/तैरते-तैरते पा लिया हो अपार भव-सागर का पार !/...काया में रहने मात्र से/काया की अनुभूति नहीं, माया में रहने मात्र से/माया की प्रसूति नहीं,/उनके प्रति लगाव-चाव भी अनिवार्य है।" (पृ. २९८) दार्शनिक तथ्यों के प्रतिपादन के अतिरिक्त माटी-धरती के संवाद में धरती द्वारा माटी को जो जीवन संघर्ष की प्रेरणा दी गई है एवं आस्था के जिस स्वरूप को वर्णित किया गया है उसके द्वारा भी माटी के अभिनव रूप सामने आते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि आद्यन्त साहित्यकारों के एकांगी अथवा प्रतिबद्ध दृष्टिकोण में आबद्ध माटी 'मूकमाटी' में रचनाकार की प्रतिभा एवं उसकी रचनाधर्मिता के कारण न सिर्फ़ विभिन्न अभिनव आयामों में अभिव्यक्त हुई है, अपितु अपने गर्भ में ऐसी अनेक नवीन उद्भावनाओं को भी समेटे हुए है जिनसे निश्चय ही आने वाला साहित्य और अधिक पुष्ट और समृद्ध हो सकेगा।
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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