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________________ 'मूकमाटी' की सामाजिक चेतना डॉ. (श्रीमती) सुशीला सालगिया 'मूकमाटी' महाकाव्य आचार्य विद्यासागर की एक अप्रतिम रचना है, जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से सन् १९८८ में हुआ है । प्रस्तुत महाकाव्य की सामाजिक चेतना पर विचार करने के पूर्व समाज, चेतना और सामाजिक चेतना आदि शब्दों का आशय जानना अनिवार्य है। वैसे तो समाज शब्द बड़ा व्यापक है । शब्द कोश के अनुसार इसके अर्थ हैं- समूह, संघ, गिरोह, दल, सभा, समुदाय आदि। चेतना का अर्थ अंग्रेजी शब्द कोश के अनुसार है- कान्शसनेस, अन्डरस्टेन्डिंग, सेन्स आदि। चेतना-संज्ञावाचक स्त्रीलिंग शब्द है जिसका अर्थ है मनोवृत्ति, बुद्धि, ज्ञानात्मक मनोवृत्ति, चेतनता, संज्ञा, होश आदि । उपर्युक्त शब्दार्थों के आधार पर समाज और सामाजिक चेतना की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती हैपशुओं से भिन्न जनसमूह अथवा जनसमाज की ज्ञानात्मक मनोवृत्ति का नाम सामाजिक चेतना है और समाज पशुओं से भिन्न लोगों के संघ या समूह का नाम है। हेमचन्द्र के अनुसार चेतना का अर्थ है 'सभा' । डॉ. जंकसन के अनुसार समाज मनुष्यों के मैत्री या शान्तिपूर्ण दशा का नाम है । व्यक्तियों के समूह को समाज कहते हैं। पर भीड़ या आकस्मिक जमावड़े को समाज नहीं कहा जा सकता । समाज के सभी व्यक्तियों का एक निश्चित लक्ष्य होता है। आचार्य विद्यासागरजी ने समाज की परिभाषा 'मूकमाटी' में इस प्रकार दी है : "समाज का अर्थ होता है समूह/और/समूह यानी सम-समीचीन ऊह-विचार है/जो सदाचार की नींव है ।" (पृ. ४६१) सामाजिक चेतना को 'हिन्दी साहित्य-सामाजिक चेतना' कृति में रत्नाकर पाण्डेय ने इस तरह परिभाषित किया है : “समाज की अधोगति और पतनावस्था की विविध प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जो प्रतिभा आकर्षक दीप्ति बनकर चमक उठे और जिसके प्रभाव से समस्त समाज में जनजागरण की जो लहर व्याप्त हो जाए, उसी को सामाजिक चेतना का वाहक समझना चाहिए । सामाजिक चेतना अभावात्मक या नकारात्मक नहीं होती। व्यक्ति मात्र में चैतन्यमूर्त है परन्तु रूढ़ि, अशिक्षा और अभावों के कारण यह दुष्प्रभावित या कुण्ठित हो जाती है। इस दुष्प्रभाव से मुक्त रहना और कुण्ठा को अपनी अन्त:वृत्ति से तिरोहित बनाए रखना ही सामाजिक चेतना है।" इस सामाजिक चेतना को लाने के लिए किसी व्यक्ति विशेष या समूह विशेष का जीवन उत्सर्ग होता है तभी सदियों से जो रूढ़ियाँ समाज में जड़ें जमा चुकी होती हैं, उनका उच्छेद होता है। बिना त्याग या उत्सर्ग के रूढिबद्ध आध्यात्मिकता के स्थान पर नई आध्यात्मिकता अथवा नवसंस्कृति का जन्म सम्भव नहीं है। सामान्य मानव युगीन परिस्थितियों से समझौता करके उसमें जी लेता है । वह उन परिस्थितियों में कोई विशेष परिवर्तन लाने का प्रयास नहीं करता किन्तु कुछ विरले मानव ऐसे भी होते हैं जो स्थितियों को देखकर मौन दर्शक नहीं बने रह सकते। उनकी अन्तरात्मा छटपटाती है, कुछ कहने के लिए। अन्तत: उनकी छटपटाहट या तो वाणी या लेखनी द्वारा शब्दों का सन्धान कर मानव समाज को झकझोर कर रख देती है, उसे कुछ मनन-चिन्तन करने के लिए उद्वेलित करती है और अन्त में विवश करती है परिवर्तन, परिमार्जन, परिशोधन के लिए। किसी सामान्य व्यक्ति के बूते की बात नहीं होती यह सब करना । उनका असाधारण और प्रभावशाली व्यक्तित्व और कृतित्व है, जो समाज को बोध दे रहा है या जिनका असीम त्याग एवं कठिन तपस्या है। तभी यह लोक उनकी वाणी को सुनेगा, ग्रहण करेगा और आचरण भी करेगा । जहाँ लोक उपदेष्टा की कथनी और करनी में अन्तर देखेगा वह उसकी वाणी तो क्या, उसे भी स्वीकार नहीं करेगा।
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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