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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 191 बिखरी माटी को/नाना रूप प्रदान करता है ...शिल्पी का नाम/कुम्भकार हुआ है।” (पृ. २७-२८) 'मूकमाटी' आधुनिक भावबोध से सम्बन्धित एक राष्ट्रीय चेतना का काव्य है । आधुनिक युग के मानवसमाज और जीवन में अनास्था का भाव एक संक्रामक रोग बनकर फैला है। यह रोग मनुष्य मात्र को जड़ीभूत बनाए हुए है। उसमें सोचने और समझने का माद्दा नहीं रह गया है कि क्या करणीय है और क्या अकरणीय । आज का मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, गर्व, ममत्व, मद, ईर्ष्या-द्वेष, संघर्ष को अपनाकर जी रहा है । ये सभी भाव अनचाहे में ही मनुष्य से अनैतिक और असात्त्विक कार्य कराते रहते हैं । युद्ध और नरसंहार इसी की परिणति है । दु:ख और वेदना इसी की देन है। आतंकवाद और हिंसा की उपज भी इन्हीं कारणों से हुई है। अशान्ति और विचलन इसी की देन है। इन सभी अमानवीय भावनाओं और चेतनाओं से मनुष्य जाति या विश्व की विविध जातियों को यदि उबरना है तो उन्हें इन प्रवृत्तियों से अपना नाता तोड़ना पड़ेगा । पर नाता तोड़ना इतना सरल नहीं है । इसे कार्य रूप में परिणत करना होगा। सात्त्विक और नैतिक कर्मों की ज़िम्मेवारी लेनी होगी तभी इससे बचा जा सकता है । यह तभी सम्भव है जब विश्व के सारे लोग शिल्पी के प्रति आस्थावान् हों, क्योंकि : “आस्था के बिना रास्ता नहीं" (पृ. १०)-आस्था ही इसका स्थायी हल है जो इस महाकाव्य की मूल मनोभूमि है । अनास्था ही विश्व की सभी पीड़ाओं, दुःखों, कष्टों, विपदाओं, विपरीत कर्मों, यातनाओं, नरसंहारों, युद्धों की जननी है। वर्णसंकरता और विकृतियों की उपज के मूलभूत कारण भी यही हैं। इसलिए यदि देश, जाति, राष्ट्र और विश्व तथा मानवता को बचाना है तो प्रत्येक व्यक्ति को आस्थावान् होना पड़ेगा। यही इस कृति का मूल सन्देश है। यह महाकाव्य एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पीठिका को अपने दीर्घ कलेवर में संजोए हुए है। यह महाकाव्य केवल माटी के इतिहास' का ही प्रस्तुतीकरण नहीं करता वरन् वह मानव के जीवन दर्शन के इतिहास को भी यथार्थ रूप में प्रस्तुत करता है । यह जीवन दर्शन रचनाकार द्वारा थोपा हुआ नहीं है वरन् प्रसंगगत परिवेशों से उपजा हुआ दर्शन है । यह जीवन दर्शन के आस्थावादी स्वरूप का आकलन करता है । यह अनास्थावादी दर्शन का विरोधी है । उसके इस आस्तिक दर्शन में मानव के सात्त्विक जीवन का इतिहास छिपा हुआ है । वास्तविक जीवन इसी का नाम है । आज के युग में साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी और उच्चवर्गीय तथा पूँजीवादी लोगों ने अनास्था और नास्तिकता का जो वातावरण पैदा किया है, वह मानव विकास के लिए घातक सिद्ध हुआ है । आज जो मानव विकास की यात्रा में अवरोध आए हैं वे सब इन्हीं वर्गों द्वारा उत्पन्न किए गए हैं। इन सभी ने गरीबों का जीना हराम कर दिया है जबकि विश्व में इनकी संख्या कम है। रचनाकार कहता है कि मेरी कृति अमीरों-पूँजीपतियों की धरोहर नहीं है, वह गरीबों की सम्पत्ति है जिसमें अभी भी आस्था के बीज मौजूद हैं। वह घोषणा करता है : “अमीरों की नहीं/गरीबों की बात है;/कोठी की नहीं/ कुटिया की बात है" (पृ. ३२)। यह रचनाकार की क्रान्तिकारी अवधारणा है जिसे ध्यान में रखकर ही इस कृति का मूल्यांकन किया जा सकता है । रचनाकार की दृष्टि में माटी की वेदना सामान्यजन की वेदना है। शोषित या गरीब ये ही हैं। छोटी मछली के समान वेदना से छटपटाना इनकी नियति है। आज के मानव समाज और जीवन की विडम्बना यही है कि बड़ी मछली छोटी मछली को साबूत निगल जाती है। छोटी मछली को आज के मानव समाज और जीवन में जीने का अधिकार नहीं है। बड़ी मछली पर्याय है उन पूँजीपतियों, आभिजात्य और उच्चवर्गीय लोगों की, जो सामान्यजन को शोषण चक्र का शिकार बनाते हैं। छोटी मछली पर्याय है शोषित, दलित, सर्वहारा वर्ग की, जो सामान्यजन के रूप में निरन्तर शोषित होते रहते हैं। रचनाकार कहता है : “छोटी को बड़ी मछली/साबूत निगलती हैं यहाँ"(पृ. ७१) । कहना न होगा कि उच्चवर्गीय लोग ही मानव समाज और जीवन को ईर्ष्या-द्वेष, शत्रुता, हिंसा, आतंकवाद, घृणा,
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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