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________________ 190 :: मूकमाटी-मीमांसा नहीं जोड़ पा रहा है । वह परतन्त्रता की चेतना को विस्तारित करने वाली साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी, पूँजीवादी और उपभोक्तावादी देशों की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक काली करतूतों की पोल खोलने में नहीं हिचकिचाता, क्योंकि इन्हीं करतूतों की जानकारी से सामान्यजन में जागृति आ सकती है, ऐसा उसका विश्वास है। 'मूकमाटी' एक प्रासंगिक महाकाव्य है । इसका जुड़ाव मानवीय चेतना से है । यह महाकाव्य परम्परागत परिभाषा के चौखटे में भले ही फिट न हो, पर उदात्त वस्तुमयता और काव्यमयता की सांगरूपकता, व्यक्ति जीवन की अनुभूतिमयता, मुक्तछन्द की प्रवाहमयता, चेतना की अन्तरंगता तथा आधुनिक जीवन सन्दर्भो की यथार्थता को जिन विभिन्न समकालीन परिदृश्यों और परिवेशों में आकलित किया गया है, वह महाकाव्य की गरिमा और गौरव को अनचाहे में ही बढ़ाता है । रचनाकार इस महाकाव्य के आरम्भिक सूत्रों को जिन विभिन्न प्राकृतिक दृश्य-विधानों के माध्यम से उकेरता है, उनमें केवल प्राकृतिक परिदृश्य ही नहीं है; उनमें छिपा है एक वेदना का मानवीय संसार, जिसे वह माटी की सांगरूपकता द्वारा अभिव्यक्त करता है। माटी व्यक्ति, मानव, जीव तथा प्राणी का प्रतीक है। माटी धरती से अलग नहीं है, वह उसी का अंश मात्र है। धरती उसकी माँ है और वह है उसकी बेटी । शिल्पकार उसका पिता है। जीव संसार में आते ही अपने उत्तम गुणों को क्योंकर विस्मृत कर देता है, इसका गोस्वामी तुलसीदास उत्तर देते हैं : "विविध कर्म गुन काल स्वभाऊ । ये चातक मन बुझउ न काऊ।" स्पष्ट है कि जीव अपने आपको सांसारिक कर्मों में इतना उलझा लेता है कि वह अपनी गुणधर्मिता को भी भूल जाता है । गुणधर्मिता के विस्मरण से ही उसमें अनेक प्रकार के विकार उत्पन्न हो जाते हैं। यही विकार माटी के विकार भी बन जाते हैं। माटी विविध पहाड़ों, पठारों और मैदानों के आतप-ताप को सहते हुए नदियों के द्वारा संगृहीत की जाती है जिससे उसमें वर्णसंकरता आ जाती है । यही वर्णसंकरता उसकी विकृति का प्रमुख कारण है । जीव की भी यही गति है । संसार के मायावी प्रभाव से उसमें भी विकृति और वर्णसंकरता आ जाती है । दुःख, करुणा या वेदना इसी विकृति और वर्णसंकरता की देन है। __ शिल्पी यानी कुम्भकार जैसे माटी की विकृतता और वर्णसंकरता को समाप्त कर उसे मंगलमय घट में रूपान्तरित कर देता है वैसे ही समाज में अनेक साधु, सन्त, मुनि और ऋषि विद्यमान हैं जो सांसारिक जीवों को अपने सार्थक उपदेशों से उन्हें सत्कर्मों की राह पर लाकर परिष्कृत और संस्कारित कर सकते हैं। लोकमंगल चेतना का विकास सत्कर्मों के अभाव में असम्भव है। धर्म, दर्शन और अध्यात्म जीवों को सत्कर्म करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं। कर्म ही प्रमुख सरोकार है जिससे सुख और शान्ति प्राप्त की जा सकती है। यह विश्व कर्म की ही परिणति है । कर्म के दो भेद हैं-अच्छा (सत्कर्म) और बुरा (कुकर्म) । कुकर्म करके ही यह माटी रूपी जीव काम, क्रोध, मद, लोभ, गर्व इत्यादि में फँस जाता है और सुकर्म (सत्कर्म) करके वह इन सभी से छुटकारा प्राप्त करता है। इन पाँच शत्रुओं से छुटकारा पाने पर ही उसकी दृष्टि लोककल्याणकारी हो उठती है। इसीलिए माटी रूपी जीव अपनी माँ धरती से, जो उसकी पथ-प्रदर्शिका भी है, पद, पथ और पाथेय की माँग करती है : “सरिता-तट की माटी/अपना हृदय खोलती है/माँ धरती के सम्मुख ! ...पद दो, पथ दो/पाथेय भी दो माँ !" (पृ. ४-५) यही माटी जीव भी है, नायिका भी है, प्रेमिका भी है, नारी भी है, प्रकृति भी है और कुम्भकार रचयिता है, नायक भी है, प्रेमी भी है, नर भी है, पुरुष भी है। तभी तो वह माटी की वर्णसंकरता और विकृतियों को नष्ट कर मंगलमयी कुम्भ को गढ़ता है और कुम्भकार कहलाता है : "वह एक कुशल शिल्पी है !/उसका शिल्प/कण-कण के रूप में
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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