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________________ जय हो ! जय हो ! जय हो !" (पृ. ३१५) कुम्भ द्वारा काव्य पंक्तियाँ सुनाने पर सेठ को प्रबोध मिला । भ्रान्तियाँ दूर हो गईं। अभ्यागत का स्वागत : मूकमाटी-मीमांसा :: 293 "मन शुद्ध है / वचन शुद्ध है / तन शुद्ध है और / अन्न-पान शुद्ध है / आइए स्वामिन् !" (पृ. ३२३) पुनश्च, स्व-उद्धार की विनय इन शब्दों में हुई : "शरण, चरण हैं आपके, / तारण तरण जहाज, भव-दधि तट तक ले चलो / करुणाकर गुरुराज !" (पृ. ३२५ ) जल, चन्दन, अक्षत आदि अष्ट मंगल द्रव्यों द्वारा पूजन के उपरान्त आहार करने हेतु आग्रह किया जाता है। प्रसंगानुसार भूख व्याख्या की गई : "भूख दो प्रकार की होती है/ एक तन की, एक मन की ' (पृ. ३२८) तथा “ये सारी इन्द्रियाँ जड़ हैं, / जड़ का उपादान जड़ ही होता है, / जड़ में कोई चाह नहीं होती / जड़ की कोई राह नहीं होती /... परस-रस- गन्ध / रूप और शब्द / ये जड़ के धर्म हैं/ जड़ के कर्म । " (पृ. ३२८-३३० ) अभ्यागत के समक्ष रजत एवं स्वर्ण कलशों द्वारा दुग्ध एवं इक्षुरस के दान का प्रयास किया गया । स्फटिक झारी द्वारा अनार रस का निवेदन हुआ । पर, यह क्या ? अभ्यागत को तोष नहीं मिला । वह इधर-उधर देखने लगा । मानों अपना प्राप्य चाह रहा हो । उक्त पात्रों की ओर तो उसकी दृष्टि तक नहीं उठी। अचानक माटी का कुम्भ आगे बढ़ाया सेठ ने और– “अतिथि की अंजुलि खुल पड़ती है/ स्वाति के धवलिम जल-कणों को देख / सागर- उर पर तैरती शुक्तिका की भाँति ! / चार-पाँच अंजुलि जल-पान हुआ।” (पृ. ३३१-३३२) इसी प्रकरण में 'गर्तपूर्ण वृत्ति, ‘गोचरी वृत्ति, 'अग्निशामक वृत्ति' तथा 'भ्रामरी वृत्ति' का भी वर्णन किया गया है। सेठ परिवार सानन्द प्रफुल्लता का अनुभव करता है । और सेठ के गौर वर्ण के युगल करों में माटी का कुम्भ शोभा पा रहा है कनकाभरण में जड़े हुए नीलम - सा । कुम्भ द्वारा सेठ के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का भाव । माणिक मणि से ख स्वर्णमुद्रा संयुक्त करों से अतिथि का चरण स्पर्श । क्योंकि - "पूज्यपदों की पूजा से ही / मनवांछित फल मिलता है” (पृ. ३३७) । रजत मुद्रा, कुण्डल, पीताम्बर, बाल की लटों के अटपटापन आदि पर कवि द्वारा मनोहारी टिप्पणियाँ प्रस्तुत की गई हैं । अतिथि के दर्शन हेतु प्रतिवेशियों का इकट्ठा होना प्रांगण में । आशीर्वाद के निमित्त समवेत दर्शनार्थियों की प्रार्थना । सेठ द्वारा अनेक प्रश्नों का उठाया जाना । अतिथि श्रमण द्वारा उन सबका समाधान, यथा : "6 'आत्मा को छोड़कर / सब पदार्थों को विस्मृत करना ही सही पुरुषार्थ है ।” (पृ. ३४९) "" तदुपरान्त निज निवास की ओर प्रत्यागमन। फिर कुम्भ और सेठ का संवाद होता है। पीतल कलश के क्षोभ का उद्घाटन। आँखों और चरणों पर तर्कपूर्ण टिप्पणी । श्रमण की परिभाषा 'श्रम करे सो श्रमण ।" स्वर्ण के कलश द्वारा सन्त के नाम की सार्थकता पर व्यंग्य । फिर माटी और स्वर्ण की तुलना एवं महत्ता पर प्रवचन । असंयमी एवं संयमी का मशाल एवं दीपक दृष्टान्त द्वारा स्तवन । कुम्भ - झारी संवाद में झारी को 'पाप की पुतली' सुनकर आलाप । ग्रन्थ में विद्यमान प्रायः सभी पात्रों ने माटी के पात्र का उपहास उड़ाया और उसे मूल्यहीन बताया । एक अन्य प्रकरण मत्कुण का है, जिसके द्वारा कवि ने सामाजिक स्थितियों एवं आधुनिक युग-बोध से अवगत कराया है, यथा : 1
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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