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________________ 292 :: मूकमाटी-मीमांसा स्पष्ट छाप विद्यमान है, यथा : ० “आगामी आलोक की आशा देकर/आगत में अन्धकार मत फैलाओ!" (पृ.२९२) ० "अपनी प्यास बुझाये बिना/औरों को जल पिलाने का संकल्प मात्र कल्पना है,/मात्र जल्पना है।" (पृ. २९३) “पावन-व्यक्तित्व का भविष्य वह/पावन ही रहेगा।/परन्तु, पावन का अतीत-इतिहास वह/इतिहास ही रहेगा अपावन "अपावन'' अपावन ।” (पृ. २९७) _ “काया में रहने मात्र से/काया की अनुभूति नहीं,/माया में रहने मात्र से माया की प्रसूति नहीं,/उनके प्रति/लगाव-चाव भी अनिवार्य है।" (पृ. २९८) अग्नि-परीक्षा के उपरान्त कुम्भ का निर्दोष होना और संकल्प की दिशा में अग्रसर होने का प्रयास कैसा विलक्षण और सुखद है : "लो, कुम्भ को अवा से बाहर निकले/दो-तीन दिन भी व्यतीत न हुए उसके मन में शुभ-भाव का उमड़न/बता रहा है सबको कि, अब ना पतन, उत्पतन"/उत्तरोत्तर उन्नयन-उन्नयन/नूतन भविष्य-शस्य भाग्य का उघड़न !/बस,/अब दुर्लभ नहीं कुछ भी इसे सब कुछ सम्मुख"समक्ष।" (पृ. २९९) "मानापमान समान जिन्हें,/योग में निश्चल मेरु -सम, उपयोग में निश्छल धेनु-सम,/लोकैषणा से परे हों/मात्र शुद्ध-तत्त्व की गवेषणा में परे हो;/छिद्रान्वेषी नहीं/गुण-ग्राही हों, प्रतिकूल शत्रुओं पर कभी बरसते नहीं,/अनुकूल मित्रों पर/कभी हरसते नहीं,/और ख्याति-कीर्ति-लाभ पर/कभी तरसते नहीं।" (पृ. ३००) "क्रूर नहीं, सिंह-सम निर्भीक/किसी से कुछ भी मांग नहीं भीख, प्रभाकर-सम परोपकारी/प्रतिफल की ओर/कभी भूल कर भी ना निहारें, निद्राजयी, इन्द्रिय-विजयी/जलाशय-सम सदाशयी मिताहारी. हित-मित-भाषी/चिन्मय-मणि के हों अभिलाषी; निज-दोषों के प्रक्षालन हेतु आत्म-निन्दक हों/पर निन्दा करना तो दूर, पर-निन्दा सुनने को भी/जिनके कान उत्सुक नहीं होते/मानो हों बहरे ! यशस्वी, मनस्वी और तपस्वी/होकर भी,/अपनी प्रशंसा के प्रसंग में जिन की रसना गूंगी बनती है।” (पृ. ३०१) पृष्ठ संख्या ३१२ से एक अन्य प्रकरण सेठ का, जो समागन्तुक गण्यमान अतिथि का अपने निवास पर भोजनार्थ आने पर उनका यथाविधि आह्वान करता है । नवविध सत्कार करता हुआ, विनम्र बन, जयगान करता है : "पक्षपात से दूरों की/यथाजात यतिशूरों की/दया-धर्म के मूलों की साम्य-भाव के पूरों की/जय हो ! जय हो ! जय हो !/भव-सागर के कूलों की शिव-आगर के चूलों की/सब-कुछ सहते धीरों की/विधि-मल धोते नीरों की
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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