SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 190 :: मूकमाटी-मीमांसा परम पवित्रता प्राप्ति के पूर्व अग्नि-परीक्षा से गुज़र कर पार होना पड़ता है। कुम्भ अब घट का रूप ले चुका है किन्तु उसकी परिपक्वता के लिए उसे अवे की अग्नि में, कठिन साधना की अग्नि में तपकर शुद्ध रूप प्राप्त करना होगा। यह कार्य इतना महत्त्वपूर्ण है कि कुम्भकार नव बार नवकार मन्त्र का पाठ कर अवा को अग्नि लगाता है : "पूरी शक्ति लगा कर नाक से/पूरक आयाम के माध्यम ले उदर में धूम को पूर कर/कुम्भ ने कुम्भक प्राणायाम किया जो ध्यान की सिद्धि में साधकतम है/नीरोग योग-तरु का मूल है।" (पृ. २७९) शब्द से शब्द और उससे अर्थ निकाल कर कवि उनकी मीमांसा करता है । कुम्भ पक चुका है । उसको अवा से निकालना, उसके शुद्ध परिपक्व रूप के दर्शन से आनन्द अद्वितीय होता है। आगे आचार्य कवि ने साधु के आहार दान की प्रक्रिया वर्णित की है । दाता है सेठ, किन्तु वह दान के लिए स्वर्ण, रजत कलशों के स्थान पर माटी के शुद्ध कुम्भ के द्वारा अतिथि का सत्कार करना चाहता है । उसके चयन से स्वर्ण, रजत के अहंकारी कुम्भों को अपमान का अनुभव होता है और प्रतिशोध के लिए वे आतंकवादी दल को आहूत करते हैं। यह दल कुम्भ के नाश, सेठ तथा उसके परिवार का विनाश करना चाहता है । सेठ परिवार घट सहित उनसे बचकर चलता है और नदी पार करने का प्रयास करता है। सरिता और जलचर इस पवित्र दल की रक्षा और आतंकवादियों से विरोध लेते हैं। पवन झकोरे लेता है जिससे आतंकवाद की नौका डूबने लगती है। कुम्भ सहित परिवार तट तक पहुँच जाता है, और : "सर्व-प्रथम चाव से/तट का स्वागत स्वीकारते हुए कुम्भ ने तट का चुम्बन लिया।" (पृ. ४७९) सम्पूर्ण वातावरण धर्मानुराग से भर उठा । कुम्भ परिवार सहित कुम्भकार का अभिवादन करता है। इसी समय धरती माँ का कथन है : "माँ सत्ता को प्रसन्नता है, बेटा/तुम्हारी उन्नति देख कर मान-हारिणी प्रणति देख कर।” (पृ. ४८२) किन्तु कुम्भकार में कहीं कोई अहंकार नहीं : "यह सब/ऋषि-सन्तों की कृपा है,/उनकी ही सेवा में रत एक जघन्य सेवक हूँ मात्र,/और कुछ नहीं " (पृ. ४८४) पवित्र परिवारजनों से क्षमा प्राप्त कर, आतंकवादी दल में भी परिवर्तन होता है और पाषाण फलक पर आसीन साधु अभय का हाथ उठा मानों सभी को सम-रूप से शाश्वत सुख का आशीर्वाद देते हैं : "शाश्वत सुख का लाभ हो" (पृ. ४८४) । आतंकवादियों ने अपने जीवन में न आस्था जानी है और न साधना पथ, अत: वे साधु से वचन चाहते हैं। साथ ही उस सुख का दर्शन चाहते हैं जो साधु ने प्राप्त कर लिया है यह सम्भव नहीं है क्योंकि उनको गुरु का आदेश वचन का नहीं, प्रवचन देने का है । वह उनको समझाने का प्रयास करते हैं: "बन्धन-रूप तन,/मन और वचन का/आमूल मिट जाना ही/मोक्ष है" (पृ. ४८६) आदि । अभी भी उनको आश्वस्त न होते देखकर वे कहते हैं : "क्षेत्र की नहीं,/आचरण की दृष्टि से/मैं जहाँ पर हूँ
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy