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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 371 'भक्तामर स्तोत्र' में भी इसी भाव को प्रदर्शित किया गया है : "स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्, नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता। सर्वा दिशो दधति भानि सहसरश्मिं, प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम् ॥२२॥" यहाँ तीर्थंकर भगवान् की माता का गुणगान करते हुए मातृत्व की ही प्रशंसा की है । माँ शब्द में अजीब ममतामय आकर्षण निहित है। आचार्य विद्यासागरजी कहते हैं कि हम मातृ-तत्त्व के महत्त्व को भूल रहे हैं, इसी कारण सम्बन्धों में- ज्ञेय-ज्ञायक के सम्बन्धों में फ़ासला आ गया है। जीवन में सुख-शान्ति पुन: लाने के लिए मातृ-तत्त्व को महिमान्वित करना होगा, मातृत्व को उचित सम्मान प्रदान करना होगा : "मातृ-तत्त्व की अनुपलब्धि में/ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध ठप ! ऐसी स्थिति में तुम ही बताओ,/सुख-शान्ति मुक्ति वह किसे मिलेगी, क्यों मिलेगी/किस-विध ?/इसीलिए इस जीवन में माता का मान-सम्मान हो,/उसी का जय-गान हो सदा,/धन्य!"(पृ. २०६) aur ROOG OH मन्द मन्द 'सुगन्ध पवन बह रश है; 588 बहारी जीवन है।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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