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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 369 गिर रहे हैं, नैतिकता के ह्रास से अभिशप्त हैं, जमाखोरी/संग्रहवृत्ति से पीड़ित हैं तथा जीवन मूल्यों के स्खलन से आहत हैं । आचार्यश्री ठीक कहते हैं कि 'अबला' मनुष्य को संकटों/समस्याओं से बचाती है (अ+बला=अबला), इसलिए उसका नाम “अबला के अभाव में/सबल पुरुष भी निर्बल बनता है"(पृ.२०३), तो इसे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में/ सामाजिक परिवेश में परखिए, देखिए, सर्वत्र नारी की एक विलक्षण भूमिका मिलेगी। मुमताज़ महल, नूरजहाँ प्रेम और सौन्दर्य को अमरत्व प्रदान करने वाली नारियाँ हैं । झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हज़रत महल वीरत्व तथा साहस की प्रतिमाएँ हैं। इन्दिरा गाँधी भारत को एकता-अखण्डता प्रदान कर उसे एक विश्व शक्ति का ओज एवं प्रताप देने वाली हैं। मदर टेरेसा मानव सेवा का सिम्बल हैं। श्री माँ अध्यात्म शक्ति की पुंज हैं। आर्यारत्न ज्ञानमती, विचक्षणश्री, साध्वीलाभा हैं। इनसे हमारा जीवन भरा-पूरा है, सम्पन्न है। इन्हें ज़रा जीवन से पृथक् कर के देखिए, वह रिक्तता आ जाएगी जिसे पुरुष कभी भर नहीं सकेगा और उसे लगेगा जैसे कहीं वह रेगिस्तान में अकेला भटक रहा है। जब आचार्य श्री विद्यासागर ने नारी के 'कुमारी' रूप (पृ.२०४) पर दृष्टिपात किया तब उसे धरती को सम्पदा-सम्पन्न बनाने वाली कहा यानी वह लक्ष्मी-स्वरूपा है, इसीलिए सन्तों ने उसका रूप मांगलिक माना है, उसे मंगल-मौर कहा है । नारी 'स्त्री' रूप में पुरुष की काम-वासना को अभिसंयत रखती है तथा गर्भधारण करती है, इसलिए वह स्त्री है । स्त्री होने के कारण वह मनुष्य को फ़िजूलखर्ची से बचाती है, उसे संग्रहवृत्ति से विरक्त रखती है। धनार्जन के साथ उसे पुण्यार्जन की दृष्टि प्रदान करती है, समाज के कल्याणार्थ कर्म करने के लिए उत्प्रेरित करती है तथा धर्म-परम्परा को अक्षुण्ण रखने के लिए पुरुष को धर्मोन्मुख बनाती है, इसलिए वह 'स्त्री' का अभिधान धारण करती है। कविवर ने 'स्त्री' शब्द का विश्लेषण किस कौशल से किया है, देखिए : " 'स्' यानी सम-शील संयम/'श्री' यानी तीन अर्थ हैं धर्म, अर्थ, काम-पुरुषार्थों में/पुरुष को कुशल-संयत बनाती है सो 'स्त्री' कहलाती है।" (पृ. २०५) जीवन में संयम की अवतारणा स्त्री द्वारा ही सम्भव है, वरना समाज का शीराज़ा बिखर जाए, वह विशृंखलित हो जाए। जब नारी को 'सुता' तथा 'दुहिता' कहा है तो श्री विद्यासागरजी का आशय यह है कि सुख-सुविधाओं का जो स्रोत बहाती है वह ‘सुता' है और जिसमें दो हित हों, वह 'दुहिता' (दु-दो, हिता=हित करने वाली) है। वह अपने जीवन का हित तो करती है, साथ में पति के पतित जीवन का भी हित करती है। दूसरे, दुहिता होने का मतलब यह है कि स्त्री दो कुलों का हित करती है- पिता का, पति का । मानों दो प्रकार से हितों का, कल्याण का, सुख-सम्पत्ति का वह दोहन करती है, इसलिए उसका 'दुहिता' होना अर्थवत्ता-पूर्ण है। नारी को 'अंगना' (पृ.२०७) इसलिए कहा जाता है कि वह पुरुष का ही एक अंग है, उसके बिना पुरुष अधूरा है, अपूर्ण है। पुरुष का एक अंग होने पर वह 'अर्धांगिनी' कहलाती है। कामाग्नि में अंगारित होने वाले लोगों को नारी बताना चाहती है कि वह अंगना' जरूर है, लेकिन उसके अंगों के भीतर भी तो झाँककर देखना चाहिए। उसके अंगों के सौन्दर्य के पीछे आत्मा का सौन्दर्य भी विद्यमान है जो शाश्वत है तथा 'निरंजन भास्वत' है । वह 'स्व' का परिज्ञान कराना चाहती है ताकि सब अपने को जानें, पहचानें । जो अपने को पहचान लेता है वह सब कुछ पहचान लेता है, जान लेता है:
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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