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________________ कहता है : मूकमाटी-मीमांसा : : 335 " अरे कंकरो !... / तुम में कहाँ है वह / जल- धारण करने की क्षमता ? जलाशय में रह कर भी / युगों-युगों तक / नहीं बन सकते जलाशय तुम ! / मैं तुम्हें / हृदय - शून्य तो नहीं कहूँगा / परन्तु पाषाण-हृदय अवश्य है तुम्हारा, / दूसरों का दुःख-दर्द / देखकर भी नहीं आ सकता कभी / जिसे पसीना / है ऐसा तुम्हारा / सीना !" (पृ. ४९-५० ) किन्तु ऋषि-सन्तों का उपदेश है कि किसी भी व्यक्ति से घृणा मत करो, भले ही वह पतित - पापी ही क्यों न हो । पापी से नहीं बल्कि पाप से घृणा करो ताकि सम्यक् आचरण का पालन करते हुए स्वयं को परमात्मा बना सको । आचार्यश्री का कथन है :: " ऋषि सन्तों का / सदुपदेश - सदादेश / हमें यही मिला कि पापी से नहीं / पाप से / पंकज से नहीं, / पंक से / घृणा करो । / अयि आर्य ! नर से / नारायण बनो / समयोचित कर कार्य ।" (पृ. ५०-५१ ) - 1 धर्म में ही सिखाता है कि पतित से पावन बनो । आचार्यश्री के अनुसार विश्व में अनेक धर्म प्रचलित हैं । इन सभी धर्मों में एक धर्म वह भी है जो प्राणीमात्र के लिए पतित से पावन बनने का मार्ग बताता है। उस धर्म का नाम है-'जैन धर्म' । जैन धर्म प्राणीमात्र के कल्याण की भावना रखने वाला धर्म है । हमारा प्रथम कर्त्तव्य है कि हम स्वयं पाप से ऊपर उठें, स्वयं पतित से पावन होने का प्रयत्न करें । कोई व्यक्ति पतित से पावन कैसे बने ? यह बात विचारणीय है । हमें ध्यान रखना चाहिए कि जो व्यक्ति अपने आपको प्रारम्भ से ही पावन मानता है, उसके पावन बनने की कोई गुंजाइश ही नहीं है । पावन से पावन बनने का प्रयास भी कौन करेगा ? पहले हमें जानना होगा कि हम पतित हैं और पतित होने का कारण हमारे स्वयं के बुरे कर्म हैं। संसार में भटकाने वाले भी यही कर्म हैं । पापी से नहीं बल्कि पाप से बचो । यही उच्च बनने का रास्ता । यदि पापी से घृणा करोगे तो वह कभी पुण्यात्मा नहीं बन सकेगा और घृणा करने वाला स्वयं भी पतित हो जाएगा। रत्नत्रय के पवित्र संस्कारों के द्वारा पाप के संस्कारों से मुक्त होकर आत्मा शुद्ध बन सकती है। पवित्र संस्कारों द्वारा ही पतित से पावन बना जा सकता है। जो व्यक्ति पापों से अपनी आत्मा को छुड़ाकर केवल विशुद्ध भावों के द्वारा अपनी आत्मा को संस्कारित करता है, वही संसार से ऊपर उठ पाता है । यह मात्र कल्पना नहीं है । यह सत्य है । यही सच्चा विज्ञान है । जैसे मिट्टी ऊपर उठना चाहती है, अपना उद्धार करना चाहती है तो एक दिन धरती माँ से पूछती है कि माँ मुझे लोग पद - दलित करते हैं, मुझे खोदते, रौंदते और तरह-तरह की यातनाएँ देते हैं। क्या मेरे जीवन में कभी ऐसा अवसर कि मैं भी सभी की प्रेम-भाजन बनूँ ? क्या ऐसा विकास मेरा भी सम्भव है ? तब धरती माँ समझाती है कि हाँ, सम्भव है, लेकिन इसमें बड़ी साधना और सहनशीलता की आवश्यकता है। इसके लिए त्याग, तपस्या और विश्वास की आवश्यकता है । जो प्रक्रिया बताई जाएगी उस प्रक्रिया को अपनाना होगा । तब एक समय ऐसा आएगा जब सभी तुझे प्यार से सम्भालकर ऊपर रखेंगे । यदि पतित से पावन बनने का विचार तेरे मन में आया है तो जब भी कोई कुम्हार यहाँ पर आए, उसके हाथों में अपने को समर्पित कर देना । रोना, चिल्लाना नहीं। उसके प्रति द्वेषभाव भी मत करना। वह जो प्रक्रिया बताए उसे ग्रहण करना । वह जैसा करे, करने देना । कुछ भी प्रतिक्रिया मत करना । यही पतित से पावन बनने का सूत्रपात होगा ।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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