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________________ 334 :: मूकमाटी-मीमांसा के ये विचार (पृ. २७२) देखे जा सकते हैं । निर्बलों को सताने, हानि पहुँचाने में बल की सार्थकता नहीं है । बल की सार्थकता तो निर्बलों को बल का सम्बल देकर बचाने में ही है। इस बात को लकड़ी के द्वारा आचार्यश्री ने कहलवाया है : "लड़खड़ाती लकड़ी की रसना / रुकती - रुकती फिर कहती है'निर्बल - जनों को सताने से नहीं, / बल-सम्बल दे बचाने से ही बलवानों का बल सार्थक होता है ।" (पृ. २७२) बार ऐसा भी देखा जाता है कि निर्बल को सम्बल दिए जाने पर भी निर्बल को कष्ट होता है। इसमें उठाने वाले का कोई दोष नहीं होता अपितु निर्बल की शक्तिहीनता ही कारण बनती है । 'मूकमाटी' में शिल्पी निमित्त को स्वीकार करते हुए कहता है : " नीचे से निर्बल को ऊपर उठाते समय / उसके हाथ में पीड़ा हो सकती है, उसमें उठाने वाले का दोष नहीं, / उठने की शक्ति नहीं होना ही दोष है हाँ, हाँ ! / उस पीड़ा में निमित्त पड़ता है उठानेवाला ।” (पृ. २७२-२७३) हाँ, इतना तय है कि यदि आप दूसरों की पीड़ा दूर करने का प्रयत्न करते हैं तो तुम्हारे दिल में शान्ति मिलेगी। कुंवर बेचैन की ये दो पंक्तियाँ आचार्यश्री के कथन को ही मानों स्पष्ट करती हैं : 6 " तुम्हारे दिल की चुभन भी ज़रूर कम होगी किसी के पाँव से काँटा निकालकर देखो ।” आचार्यश्री को तो ऐसा जीवन कष्ट साध्य ही लगता है जिसमें दूसरे के दुखों को मिटाने का भाव नहीं हो। वे जिनमूर्ति की ओर इंगित करते हुए कहते हैं कि जिनवर की नासाग्र दृष्टि इसीलिए है, क्योंकि वे एक पल के लिए भी दूसरों के दुःख नहीं देख सकते। आचार्यश्री धर्म पर किसी जाति विशेष का आधिपत्य स्वीकारने के पक्ष में नहीं हैं। वे तो धर्म को गंगा की निर्मल धारा की तरह सबके अन्त में प्रवाहित देखना चाहते हैं । आज के दलित वर्ग को सबसे अधिक पीड़ा धर्म/ धर्मीजनों (तथाकथित) के द्वारा ही पहुँचाई गई है। फलस्वरूप डॉ. भीमराव अम्बेडकर के नेतृत्व में लाखों दलितों ने हिन्दू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म स्वीकार किया था । आचार्यश्री धर्म को व्यक्ति, जाति, सम्प्रदाय, वर्ग विशेष के चंगुल से मुक्त कर प्राणी मात्र का धर्म बनाना चाहते हैं ताकि किसी को धर्म के नाम पर पद - दलित नहीं किया जा सके। वे कहते हैं कि गंगा नदी हिमालय से प्रारम्भ होकर निर्बाध गति से समुद्र की ओर प्रवाहित होती है। उसके जल में अगणित प्राणी किलोलें करते हैं, उसके जल से आचमन करते हैं, उसमें स्नान करते हैं, उसका जल पीकर जीवन रक्षा करते हैं, अपने पेड़-पौधों को पानी देते हैं, खेतों को हरियाली से सजा लेते हैं। इस प्रकार गंगा नदी किसी एक प्राणी, जाति अथवा सम्प्रदाय की नहीं है । वह सभी की है । यदि कोई उसे अपना बतावे तो गंगा का इसमें क्या दोष ? ऐसे ही भगवान् वृषभदेव अथवा भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्म पर किसी जाति विशेष का आधिपत्य सम्भव नहीं है । यदि कोई आधिपत्य रखता है तो यह उसकी अज्ञानता है । आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ऐसे व्यक्तियों को हृदयशून्य मानते हैं जिनमें दूसरों के दुःख-दर्द देखकर संवेदना जागृत नहीं होती । मनुष्यता का प्रथम लक्षण पर दुःख - कातरता ही है । जिसमें करुणा नहीं, उसमें मनुष्यता हो ही नहीं सकती । 'मूकमाटी' में शिल्पी कंकरों को हृदयशून्य कहता है जिनमें करुणा प्रवाहित नहीं होती । शिल्पी
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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