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________________ 134 :: मूकमाटी-मीमांसा " जो बार - बार होठों को चबा रहे हैं, / क्रोधाविष्ट हो रहे हैं, परिणामस्वरूप, होठों से / लहू टपक रहा है ... जिनका तन गठीला है / जिनका मन हठीला ... मस्तक के बाल / सघन, कुटिल और कृष्ण हैं ... जिनके अंग-अंग के अन्दर / दया का अभाव ही भरा है।" (पृ. ४२७-४२८) पर ऐसे दुष्टों से गजदल भी परिवार के चारों ओर खड़ा होकर उनकी रक्षा करता है । कवि यही तो कहना चाहता है कि जब मनुष्य क्रूर पशु बन जाता है तब पशु ही उसकी रक्षा करते हैं । कवि ने इस रौद्र रस के परिप्रेक्ष्य में प्रकृति का भी ऐसा ही भयावह रूप प्रस्तुत किया है। अरे ! धर्म का प्रभाव तो देखो ! स्वयं हिंसात्मक सर्प भी विष को त्याग परिवार की रक्षा को दौड़ा आया । आतंकवाद के पाँव रुक गए। भयभीत हुए । कवि सर्प की - 'उरग' की भूमिका पर सुन्दर शब्दों का चित्र उपस्थित करता है । आज पदवाले कितने घृणित हो गए हैं : "पदवाले ही पदोपलब्धि हेतु / पर को पद - दलित करते हैं, पाप-पाखण्ड करते हैं।” (पृ. ४३४) आतंकवाद झाड़ियों में छिप गया। लगता है जहर से जहर का प्रतिवाद हो गया। कवि नाटक का प्रयोग करता है । यह बात कुछ समझ में नहीं आई कि इसकी क्या आवश्यकता थी ? इसी समय जोर की आँधी, तूफान, वर्षा का ताण्डव प्रलय का भयावह रूप धारण कर उठता है । यह प्रकृति का ही आतंक माना जाएगा। तभी तो कवि कहता है : "जब तक जीवित है आतंकवाद शान्ति का श्वास ले नहीं सकती / धरती यह ।" (पृ. ४४१ ) पर, धर्म का कवचधारी परिवार इस आपत्ति में भी सुरक्षा पाता रहता है । लगता है कवि मानतुंग के 'भक्तामर' के इन भावों को वाणी दे रहा है, जहाँ अनेक कष्ट आँधी, तूफान, रोग आदि में भी भक्त का रक्षण होता है । और यह श्रद्धा भी दृढ़ करता है कि धर्म के सम्बलधारी का आधि-व्याधि-उपाधि कोई भी कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं। नदी में उफान है । भयानक जलचर हैं। पर परिवार की शान्तमुद्रा देख उनके हिंसक भाव भी तिरोहित हो गए हैं। परिवार को अब नदी पार करना है। नदी में तूफान है। उलटी दिशा में तैरना है। नदी में भँवरें उठ रहीं हैं । इन भँवरों में सिंह जैसा बलशाली भी समाधिस्थ हो जाता है। इस घटना से परिवार का धैर्य टूट ना जाए, अतः कुम्भ नदी को ललकार कर कहता है कि हे पाप पाँववाली नदी ! तू इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। ये तो पारगामी जीव हैं । अरे ! इस गागर में सागर को भर लेने की क्षमता है, क्योंकि हम धरती के अंश हैं, और धरती का अर्थ है जो तारे, उद्धार करे । बस फिर क्या था ! कुम्भ अपने गले की रस्सी से पूरे परिवार को क्रम से बाँध कर पार लगाने उतर पड़ता है प्रचण्ड नदी के प्रवेग में । श्रद्धावान् भक्तों को कहीं-न-कहीं से मदद मिल ही जाती है। यही तो शुभकर्म का पुण्योदय है। कुम्भ के इस साहस और परिवार के रक्षण हेतु एक महामत्स्य प्रसन्न होकर एक ऐसी मुक्ता का दान देता है जिससे धारक अबाध जल में भी पथ पा सके । यद्यपि यह एक चमत्कार ही है - तथापि निर्देश है पुण्योदय का । कवि सूक्ति के प्रयोग से कहता है :
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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