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________________ २७६ उपदेश-प्रासाद - भाग १ कहा गया हैं कि मान को छोड़ देता है, गौरव का त्याग करता हैं, दीनता को प्राप्त करता हैं, लज्जा को छोड़ देता हैं, नीचत्व का आलंबन लेता है, पत्नी-बन्धु, पुत्र-अपुत्रों में विविध अपकारों की चेष्टा करता है, उससे भूख से पीड़ित प्राणी क्या-क्या निंदित को भी नहीं करता हैं ? ऐसे दुर्भिक्ष के प्रवर्त्तमान होने पर कोकास स्व-कुटुंब के निर्वाह के लिए उज्जयिनी में गया । वहाँ पर किसी सहाय के बिना राजा से मिलने में असमर्थ हुआ कोकास बहुत काष्ठों के कबूतरों का निर्माण कर उस प्रकार के कील आदि के प्रयोग से राजा के धान्य कोठारों में भेजने लगा । वें भी जीवन्त के समान तत्क्षण ही वहाँ जाकर कणों को लेकर चोंच के द्वारा शालि चावलों से उदर को कोठे को भरने के समान ही भर कर वापिस आतें थें । कोकास उन कणों से स्व कुटुम्ब का निर्वाह करता था । एक दिन धान्य-रक्षकों ने जहाजों के समान ही कणों से पूर्ण काष्ठ के कबूतरों को चोर के समान ही धान्यागारों से निकलते हुए देखें । उससे आश्चर्य को प्राप्त हुए वें उनके पीछे जाते हुए ही कोकास के गृह में गये । वेंकोकास को राजा के समीप में ले गये । राजा के द्वारा पूछने पर उसने स्पष्ट कहा कि मित्रों के साथ में सत्य, स्त्रीयों के साथ में प्रिय, शत्रु के साथ में मधुर-झूठ तथा स्वामी के साथ में अनुकूल-सत्य कहना चाहिए । तत्काल ही अतिशय के दर्शन से संतुष्ट हुए राजा ने उसे कहा कि- तुम अन्य भी विज्ञान को जानते हो ? उसने भी कहा कि- हे स्वामी ! मैं सर्व रथकार के विज्ञान को जानता हूँ । कामित गति की ओर गमन करनेवाले ऐसे काष्ठमय मयूर, गरुड़ पक्षी, तोता, कलहंस आदि पक्षियों के ऊपर श्रेष्ठ रथ के समान ही चढकर भूमि के समान ही आकाश के आंगण में भी कील आदि के प्रयोग से यथा
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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