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________________ २७५ उपदेश-प्रासाद - भाग १ तभी रत्न-चतुष्टय में लुब्ध हुए पाटलिपुत्र के राजा जितशत्रु ने सहसा ही उज्जयिनी को घेर दी । तब काक-तालीय न्याय के समान उस नगर का स्वामी शूल-रोग से पीडित हुआ समाधि से मृत्यु को प्राप्त हुआ । प्रायः कर महाशूल आदि की उत्पत्ति ही मृत्यु रूप नाटक की नान्दी हैं । जो कि कहा गया है कि जीव शूल, विष, सर्प, विसूचिका, पानी, अग्नि, शस्त्र और संभ्रमों के द्वारा मुहूर्त मात्र में देहांतर में संक्रमण करता हैं। नायक के बिना सेना मार दी गयी हैं, इस प्रकार से सोचकर अमात्य आदि ने भेंट के समान वह नगरी जितशत्रु राजा को दी । पश्चात् राजा ने चारों भी पुरुष-रत्नों की परीक्षा की । एक दिन समग्र देह से तैल का आकर्षण करते हुए अंगमर्दक ने राजा की अनुज्ञा से एक जाँघ में पाँच कर्ष मित तैल को रखा । तब राजा ने सभा में कहा कि- अन्य जो कोई भी अभिमानी हैं, वह इस जंघा से तैल को निकालें । अन्य अंगमर्दक बहुत उपायों से भी तैल को निकाल नहीं सकें, उससे वें सभी विलक्ष मुखवालें हुए । अंगमर्दक-रत्न भी उसी दिन में निकालने में समर्थ था, न कि अन्य दिन में । कुएँ में कूएँ की छाया के समान वह तैल वैसे ही रहा था । जाँघ के काली हो जाने के कारण से वहाँ से लेकर वह लोगों में काकजंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। लोगों का मुख बंध नहीं होता है, यह सर्वविदित ही है । वैसा लोक में अच्छा नाम प्रसिद्धि को प्राप्त नहीं होता है, जैसा कि अपनाम होता हैं, उदाहरण के लिए- माषतुष, कूरगडुक, सावधाचार्य, रावण आदि के समान । इस ओर कुंकण देश में निर्धन जनों का संहार करनेवाला और महा-राक्षस के समान महा-दुर्भिक्ष हुआ था, जिसमें धनवान् भी निर्धन के समान हुए थे और राजा भी रंक के समान हुए थें । जो कि
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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