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________________ "सांच को आंच नहीं " भी ऐसा चलता रहे तो स्थानकवासी मार्ग का क्या होगा ?” इसी उद्देश्य से घासीलालजी ने झूठी टीकाएँ बनायी जो वर्तमान में भी विद्वद्वर्ग में कतई मान्य नहीं है। देखिए इतिहासवेत्ता विद्वद्वर्य कल्याणविजयजी म. के. शब्द - “ यों तो अंतिम दो शतियों से जैन श्रमणों में संस्कृत का पठन-पाठन बहुत कम हो गया था, परन्तु बीसवीं शती के उत्तरार्ध में संस्कृत भाषा की फिर कदर होने लगी । बनारस, महेसाणा आदि स्थानों में संस्कृत पाठशालाएँ स्थापित हुई और उनमें गृहस्थ विद्यार्थी पढकर विद्वान हुए, कतिपय उनमें से साधु भी हुए, तब कई साधु स्वतंत्र रूप से पण्डितों के पास पढकर व्युत्पन्न हुए, इस नये संस्कृत प्रचार से अमूर्तिपूजक संप्रदाय को एक नई चिंता उत्पन्न हुई, वह यह कि संप्रदाय में से पहले अनेक पठित साधु चले गये तो अब न जायेंगे, इसका क्या भरोसा ? इस चिंता के वश होकर संप्रदाय के अमूक साधुओं ने अपने मान्य सिद्धांतों पर नई संस्कृत टीकाएँ बनवाना शुरु किया । अहमदाबाद शाहपुर के स्थानक में रहते हुए स्थानकवासी साधु श्री घांसीलालजी लगभग ७-८ साल से यही काम करवा रहे हैं, संस्कृतज्ञ ब्राह्मण विद्वानों द्वारा आगमों पर अपने मतानुसार संस्कृत टीकाएँ तैयार करवाते हैं, साथ-साथ उनका गुजराती तथा हिन्दी भाषा में भाषान्तर करवा कर छपवाने का कार्य भी करवा रहें हैं; इस प्रकार की नई टीकाओं के साथ कतिपय सूत्र छप भी चुके हैं ।” (पट्टावली पराग पृ. ४७५-४७६) इससे यह भी सिद्ध होता है कि घासीलालजी ने भाडुती ब्राह्मण पंडितों से टीका रचवायी, उसमें उनकी विद्वत्ता कहाँ है ? अपना नाम अन्य के पास रचवायी टीका पर लगाना यह भी अनीति है । यह सत्य हकीकत जानकर लेखकश्री को झूठी डंफासे मारना बंद कर देना चाहिए । 15
SR No.006136
Book TitleSanch Ko Aanch Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2016
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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