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________________ धर्माराधना से उपसंहार गाथा-४८ २८७ वर्तमान में भी भले ही प्रत्यक्ष रूप से देवता प्रस्तुत होकर सहायता नहीं करते तो भी अप्रत्यक्ष/परोक्ष रूप से योग्य आत्माओं को देवतागण आज भी सहायता करते हैं । इस तरह वे बोधि-संयम-समाधि आदि गुणों में उपकारक बनते हैं। इसलिए इस रीति से की गई प्रार्थना किसी तरह भी अयोग्य नहीं है। अवतरणिका : इस सूत्र में व्रत संबंधी अतिचारों की आलोचना, निन्दा तथा प्रतिक्रमण किया। इसलिए किसी को शंका हो सकती है कि प्रतिक्रमण की क्रिया व्रतधारी के लिए ही है या अन्य के लिए भी ? उस शंका का समाधान करते हुए कहते हैं कि गाथा : पडिसिद्धाणं करणे, किच्चाणमकरणे अ पडिक्कमणं । असद्दहणे अ तहा, विवरीअ-परूवणाए अ॥४८॥ अन्वय सहित संस्कृत छाया : प्रतिषिद्धानां करणे, कृत्यानाम् अकरणे। अश्रद्वाने च तथा विपरीत-प्ररुपणायां च प्रतिक्रमणम्।।४८।। गाथार्थ : शास्त्र में जिसका निषेध किया हो वो क्रिया की हो, श्रावक को करने योग्य कार्य न किए हो, भगवान के वचनों में = शास्त्र में अश्रद्धा की हो तथा विपरीत प्ररूपणा की हो (इन चारों दोषों का) प्रतिक्रमण करना चाहिए। विशेषार्थ : अब किन चार दोषों का प्रतिक्रमण करना है, वह बताते हैं - १. पडिसिद्धाणं करणे - शास्त्र में जिसका निषेध किया हो वह करने से, अर्थात् अकृत्य करने से (जो दोष लगा हो, उसका प्रतिक्रमण करना है)। भगवान श्री जिनेश्वर देव ने साधक की जिस भूमिका में जिस प्रवृत्ति करने का निषेध किया हो वैसी कोई भी प्रवृत्ति साधक द्वारा हुई हो, तो वह पाप है और उस
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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