SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दृष्टि का प्रतिक्रमण गाथा-४१ २६७ क्रियाओं से पूर्णतया विपरीत वैराग्य एवं समता के भाव से भरी हुई प्रतिक्रमण की क्रिया में बंधे हुए कर्मों के पटलों को भेदने की तीव्र शक्ति है। सामान्यतया व्यवहार में भी नियम है कि शरीरादि में उत्पन्न रोग या दोष जिस कारण से होते है, उसके विरूद्ध उपाय करने से वह रोग या दोष शांत हो जाते है। उसी प्रकार आत्मा ने जिस परिणाम एवं प्रवृत्ति से कर्म बंध किया हो, उससे विपरीत परिणाम एवं प्रवृत्ति करने से कर्मनाश भी हो सकता है। यह छ: आवश्यक कर्मनाश के लिए जरूरी विपरीत परिणाम स्वरूप ही हैं। १. सामायिक : जीव ममता के कारण अधिकतर कर्मों को उपार्जित करता है। क्योंकि शरीर, धन, कुटुंब, परिवार एवं प्रतिष्ठादि की ममता के कारण जीव अनंत कर्मों का बंध करवाए वैसी हिंसा, झूठ, प्रपंच आदि पाप प्रवृत्ति करता है। इन कर्मों का नाश ममता के विरोधी समता के भाव से ही होता है। इस समता के भाव को प्रकट करने के लिए इन छ: आवश्यक की क्रियाओं में सर्वप्रथम श्रावक सामायिक करता है। सामायिक की प्रतिज्ञा याने दुनियाभर की सावध (पापवाली) प्रवृत्तियों का त्याग कर समभाव में रहने का संकल्प । ऐसा संकल्प ममता के विरोधी होने से उससे सावध प्रवृत्तियों एवं ममता के संस्कार क्षीण होते हैं। फल स्वरूप ममता के कारण बंधे हुए कर्मों का नाश होता है। २. चउविसत्यो : अनादिकाल से जीव को रागादि दोषवाले जीवों के प्रति ही राग, स्नेह या पक्षपात रहा है। इसलिए उनकी कथाएँ करके जीव ने बहुत कर्मबंध किए हैं। इन कर्मों को तोड़ने का उपाय है, गुणवानों के गुणों की स्तवना। अरिहंत भगवंत अनंत गुणों के भंडार हैं और चउविसत्थो नामका दूसरा आवश्यक उनकी स्तवना या कीर्तनरूप है। इस आवश्यक द्वारा गुण एवं गुणी के प्रति प्रीति प्रकट होती है, जिसके कारण दोष एवं दोषवान की प्रीति से या कथा से बंधे हुए कर्मों का नाश होता है। ३. वंदन : भौतिक स्वार्थ जिससे सिद्ध होते हैं, उनको नमन-वंदन करने द्वारा जीव ने अनंत कर्म बाँधे हैं। इन कर्मों के क्षय का उपाय है आत्मिक सुखों का मार्ग बतानेवाले सद्गुरू भगवंतों को वंदन। इसलिए, श्रावक ऐसे गुणवान गुरु भगवंतों को नमन-वंदन करता है। वंदन द्वारा संसारी जीवों के प्रति सद्भाव से या उनको नमस्कार आदि करने से बंधे हुए कर्मों का नाश होता है।
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy