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________________ २२६ वंदित्तु सूत्र तृप्ति : कहते हैं कि श्रावक के द्वार अभंग अर्थात् दान के लिए सदा खुले रहने चाहिए। उसके द्वार पर आया हुआ कोई भी भिक्षु खाली हाथ नहीं लौटना चाहिए । अतः श्रावक को माँगने आए हुए संयमी या असंयमी किसी भी व्यक्ति को भिक्षा तो देनी ही चाहिए, परंतु भिक्षा देते समय श्रावक को व्यक्ति अनुसार आदर आदि भाव रखने चाहिए। दान लेने वाला पात्र यदि गुणवान और सुसंयमी हो तो उसको भक्ति-बहुमान एवं अंतरंग प्रीतिपूर्वक दान देना चाहिए, दु:खी या पीड़ित असंयमी हो तो करूणा या अनुकंपा की बुद्धि से देना चाहिए तथा अन्य को औचित्य बुद्धि से देना चाहिए। कलिकाल सर्वज्ञ पू. हेमचन्द्राचार्यजी ने तो कहा है कि - पात्र एवं अपात्र की विचारणा तो जिस दान से मोक्ष मिले वैसे सुपात्र दान में ही करनी है, परंतु अनुकंपा दान के विषय में तो सर्वज्ञों ने कहीं भी निषेध नहीं किया है।" तं निंदे तं च गरिहामि - सुपात्रदान के विषय में जो कोई दोष लगा हो उसकी मैं निन्दा करता हूँ एवं गुरु समक्ष उसकी गर्दा करता हूँ। इस गाथा का उच्चारण करते हुए श्रावक को दिनभर में स्वयं दिए हुए दान को याद करना चाहिए। उसमें कहीं राग-द्वेष आदि रूप अशुभ भाव तो नहीं आया, उसकी विचारणा करनी चाहिए और विचार करते हुए अगर उसे ख्याल आए कि सुपात्रदान के अवसर पर अधिकतर भक्तिभाव के बदले शून्यमन से दान दिया है, आदर आदि शुभ भाव बिना दिया है, या रागादि भाव से दिया है, तो पश्चात्तापपूर्ण हृदय से सोचना चाहिए कि, 'मैंने यह गलत किया है। इस तरीके से दान करके मैंने पुण्यकर्म से अपने आपको ठगा है। गुण के बदले दोष का उपार्जन किया है। मेरे ऐसे वर्तन को मैं धिक्कारता हूँ एवं पुनः ऐसे दोष का सर्जन न हो इसके लिए सावधान बनता हूँ।' 6. इयं मोक्षफले दाने, पात्रापात्रविचारणा। दयादानं तु तत्त्वज्ञः, कुत्रापि न निषिध्यते॥ - योगशास्त्र, तृतीय प्रकाश
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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