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________________ बारहवाँ व्रत गाथा- ३१ २२५ इसके अतिरिक्त सुपात्र में अकारण अशुद्ध दान देने में अल्प पुण्यबंध एवं दीर्घ अशुभ आयुष्य का बंध होता है । अत: आत्मकल्याण के अभिलाषी साधक को, जब जब दान का प्रसंग आए तब तब यदि कोई विशेष कारण न हो तो अशुद्ध आहारादि नहीं देना चाहिए । सुपात्र को तो शुद्ध भाव से, शुद्ध आहार का दान देकर भक्ति करनी चाहिए, इसके संबंध में विशेष बातें आगे की गाथा में बताई हैं। 5 इस गाथा का अर्थ दूसरे तरीके से भी कर सकते हैं। असंयमी अर्थात् पार्श्वस्थ आदि कुसाधु, उनका आडंबर देखकर 'यह सुखी अच्छे साधु हैं ऐसा मानकर अथवा भले ही कुसाधु हैं परंतु मेरे स्वजन, मित्र या परिचित हैं' - ऐसा मानकर राग से दान देना अथवा 'यह बिचारा दु:खी है, उसकी सेवा करने वाला कोई नहीं है इसलिए हमें सेवा करनी चाहिए' ऐसा मानकर, द्वेष से या दया के भाव से दान करने से भी इस व्रत में दोष लगते हैं। जिज्ञासा : श्रावक, संयमी के सिवाय कुसाधुओं को दान दे या नहीं ? 3 संयताशुद्धदाने अल्पायुष्कहेतुताऽशुभदीर्घायुहेतुता । ( द्वा. त्रि. १/२५ वृत्तौ ) संयत को दिया हुआ अशुद्ध दान, अल्प आयुष्य और दीर्घ अशुभ आयुष्य का कारण है। 4 सुहिएसु-(सुहितेषु) = सुखीओ में - जिसके पास वस्त्र, पात्र, उपधि आदि पर्याप्त हैं वैसे एवं दुहिएसु - (दुःखितेषु) = दु:खिओ में - जिसके पास वस्त्र, पात्र, उपधि आदि ठीक न हो अथवा रोग से पीड़ित हो, तप से शरीर कृश हो गया हो, ऐसे अस्सजएसु - (असंयतेषु) असंयमीओं में - संयम से भ्रष्ट हुए पार्श्वस्थ, अवसन्न आदि साधु अथवा उनके अलावा अन्य लिंगी याने अन्य धर्म के साधु आदि में, राग से या द्वेष से अनुकंपा की हो तो उसकी मैं निंदा करता हूँ, गर्हा करता हूँ। - वृन्दारुवृत्ति 5 पाँच प्रकार के साधु को शास्त्र में कुसाधु कहा है : (१) पासत्था - जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र के उपकरणों को अपने पास रखता है, परंतु विधिपूर्वक उनका उपयोग नहीं करता, अथवा मिथ्यात्व आदि कर्मबंध के कारणरूप 'पाश' (बंधनों) में रहता है। ये दोनों पासत्था कहलाते हैं। (२) ओसन्न : प्रमाद के कारण मोक्ष मार्ग की क्रिया में निरूत्साही साधु ओसन्न कहलाता है। (३) कुशील : ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के घातक ऐसे दुष्ट आचार (शील) वाला साधु कुशील कहलाता है। = (४) संसक्त - संवेगी या असंवेगी, जैसा साधु मिले उसके साथ वैसा बर्ताव करनेवाला साधु 'संसक्त' कहलाता है। (५) यथाछंद - गुरु आज्ञा या आगम की मर्यादा बिना सब कार्यों में स्वेच्छा से मनचाहा वर्तन करनेवाला साधु यथाछंद कहलाता हैं। - धर्मसंग्रह
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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