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________________ १९० . वंदित्तु सूत्र चालू हो तो ही इस व्रत का सुविशुद्ध पालन हो सकता है। शुभ भाव में आकर उत्साहपूर्वक मैंने भी यह व्रत स्वीकार तो किया है, परंतु प्रमादादि दोषों के कारण में कदम-कदम पर सावधानी नहीं रख सकता। मेरी दिनभर की प्रवृत्तियों पर दृष्टिपात करने से ख्याल आता है कि मैंने मन में बहुत ही निरर्थक विचार किए हैं, अनावश्यक वचन भी बोले हैं और काया से भी मैंने कितनी ही अनुपयोगी प्रवृत्तियाँ की हैं। इन सब प्रवृत्तियों को याद करके, हे भगवंत ! उनके लिए क्षमा याचना करता हूँ। आजीवन निरतिचार संयम पालन करने का मेरा सामर्थ्य नहीं, परंतु आनंद, कामदेव आदि श्रावकों की तरह निर्मल देशविरति धर्म पालन करने की भी मेरी शक्ति नहीं है। ऋषभदेव भगवान की पुत्री सुंदरी ने तो ६०,००० वर्ष तक आयंबिल सहित संपूर्ण शरीर श्रृंगार का त्याग किया था। इस प्रकार से व्रत लेकर आजीवन शुद्ध व्रत का पालन करनेवाले महात्माओं के चरणों में प्रणाम करता हूँ एवं उनसे प्रार्थना करता हूँ कि आपके जैसी देशविरतिपालन की शक्ति मुझमें भी प्रकटे, ऐसी कृपा करो।' चित्तवृत्ति का संस्करण : श्रावक को जीवन जीने के लिए तो पाप करना ही पड़ता है, पर उसके अलावा कभी-कभी वह आसपास के वातावरण से प्रभावित होकर निरर्थक पापप्रवृत्ति करने में जुड़ जाता है । अपनी ऐसी वृत्ति का प्रमार्जन करने के लिए नीचे बताए विषयों पर ज़रूर चिंतन करना चाहिए, • अपने चित्त को दुर्ध्यान से मुक्त रखने के लिए हमेशा याद रखना कि 'वर्तमान में जिस स्थिति का सर्जन हुआ वह मेरे पूर्व कर्म की आभारी है । इस परिस्थिति को पलटना मेरे बस की बात नहीं, परंतु उसमें मेरे मन को स्वस्थ रखकर अपने भविष्य को उज्जवल बनाना वह मेरे बस में है । इसलिए, मन को अच्छा रखने के लिए मुझे उसे सतत शुभ भावों में प्रवृत्त रखना चाहिए। मन में सतत जो आर्त और रौद्रध्यान होता है उसका मूल कारण है अनुकूलता का राग और प्रतिकूलता का द्वेष । मुझे सतत इन से मुक्त होने
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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