SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८८ वंदित्तु सूत्र गाथार्थ : १. कंदर्प (काम विकार प्रकट हो ऐसी वाणी), २. कौत्कुच्य (विकृत चेष्टाएँ), ३. मौखर्य (वाचालपना), ४. संयुक्ताधिकरण एवं ५. अतिरिक्त भोग - इन पाँच अतिचारों में से तीसरे गुणव्रत - ‘अनर्थदंड विरमणव्रत' संबंधी जो कोई अतिचार लगे हों, उन अतिचारों का मैं निन्दारूप प्रतिक्रमण करता हूँ। विशेषार्थ : कंदप्पे - कंदर्प जिससे काम वासना प्रकट हो वैसे दृश्य देखना, वैसी वाणी बोलना, अश्लील मज़ाक करना, अति हास्य करना, यह कंदर्प है। 'विकारी भावों को जागृत करे वैसे नाटक-सिनेमा आदि नहीं देखना' इस प्रकार के व्रतवाला श्रावक जानबूझकर तो ऐसा नहीं ही करता तो भी कभी अनजाने में या प्रमाद से ऐसा कभी हो जाए तो ऐसी चेष्टा इस व्रत में प्रथम अतिचार रूप गिनी जाती है। कुक्कुइए - कौत्कुच्य - नेत्रादि की विकृत चेष्टा। __ आँख का कटाक्ष, कामुक दृष्टि, मुख के विकृत हाव-भाव, लोगों को आकर्षित करने वाली अन्य कोई भी विकृत चेष्टा, या निम्नस्तर के हावभावों को कौत्कुच्य कहते हैं। इसके अलावा, लोगों को हँसाने के लिए ही बोलना, चलना या चेष्टा करना यह भी इस व्रत में 'कौत्कुच्य" नाम का अतिचार रूप है। श्रावक के लिए ऐसी क्रिया व्रतभंग रूप है, परंतु उपयोगशून्यता से हो जाए तो वह इस व्रत का दूसरा अतिचार है। ये दोनों अतिचार प्रमादाचरण के त्याग विषयक हैं। 7 कौत्कुच्य = ‘कृत्' अव्यय है। उसका अर्थ कुत्सा - खराब होता है। ये 'कुत्' अव्यय एवं 'कुच्' धातु को भाव अर्थ में प्रत्यय लगाने से कौत्कच्य' शब्द बना है। उसमें भांड-भवैया, हिजडे जैसे स्तन, आँख की भौंहे, होठ, नाक, हाथ, पैर एवं मुख आदि अवयवों से खराब चेष्टाएँ - शरारत करना' ऐसा अर्थ है। अर्थात् भांड-भवैया जैसी खराब चेष्टाएँ करना, उन्हें 'कौत्कुच्य' कहते हैं। कहीं पर कौकुच्य' ऐसा भी शब्द मिलता है, वो भी कुत्सित अर्थ में 'कु' अव्यय एवं कुच्' धातु को प्रत्यय लगाने से बनता है।
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy