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________________ आठवाँ व्रत गाथा-२४ १७९ टैक्स वगैरह न भरना; ऐसी चोरी करने संबंधी एकाग्रता से विचार करना 'स्तेयानुबंधी' रौद्रध्यान है। (४) संरक्षणानुबंधी रौद्रध्यान : शब्दादिक विषयों के साधनों तथा धन के रक्षण की चिंता करना, हर प्रकार से उसके हरण की आशंका करना एवं हरनेवाले को मार डालने के क्रूर विचारों में चित्त को एकाग्र बनाना संरक्षणानुबंधी' रौद्रध्यान हैं। राग, द्वेष एवं मोह के विकारवाले जीवों को ये चार प्रकार के आर्तध्यान एवं रौद्रध्यान संभवित हैं। ये आर्त्तध्यान तथा रौद्रध्यान उनके लिए तिर्यंचगति एवं नरक गति का कारण बनते हैं। २. पापोपदेश : पापकार्य संबंधी अन्य को प्रेरणा देना, उपदेश देना । पाप करने के लिए अन्य को प्रेरणा देना, यह पापोपदेश नामक अनर्थदण्ड हैं। बहुत बार गृहस्थ को किसी कारण से अपने कार्य कराने में अथवा बंधु-पुत्र आदि को कार्य में जोड़ने के लिए पाप कर्म करने के लिए प्रेरणा देनी पड़ती है। यह अनिवार्य पापोपदेश है; परंतु ऐसे प्रसंग के बिना, जिसमें अपना कोई लेन-देन नहीं, अपना कोई फायदा भी नहीं, तो भी बहुत बार बातूनी होने के कारण दूसरे को उपदेश देने की आदत आदि के कारण, कुसंस्कारों के कारण, बहुत बार श्रावक अन्यों को निष्प्रयोजन पाप कर्मों की प्रेरणा देता है, जैसे कि खेत जोतो, अमुक धंधा करो अथवा तो कई बार भाई-भाई के बीच, या सास-बहू के बीच होने वाले संवाद में ऐसी सलाह देता है कि ‘सामने जवाब दे दो, जिससे बारंबार वे बोल न सके', 'लड़की बड़ी हो गई है, उसकी शादी कर दो' आदि ऐसी गलत सलाह से निष्प्रयोजन कर्मबंध होता हैं। इस अनर्थदंड से बचने के लिए व्रतधारी श्रावक को किसी को भी ऐसी सलाह नहीं देनी चाहिए। कोई भी कार्य करने से पहले श्रावक को अच्छी तरह सोचना चाहिए। सहज भाव से भी हिंसादि का कारण बने वैसी भाषा नहीं बोलनी चाहिए। यह सब श्रावक ध्यान में रखता है, परंतु स्वयं संसार में होने के कारण कभी ऐसी भाषा उसके बोलने में आ जाए तो व्रत में अतिचार लगता है। अनर्थदंड के बाकी दोनों प्रकार बहुत सावध हैं। इसलिए सूत्रकार स्वयं दो गाथाओं में क्रम से उनका विचार करते हैं।
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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