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________________ १४२ वंदित्तु सूत्र खित्त-वत्थू - क्षेत्र-वास्तु प्रमाणातिक्रम। क्षेत्र अर्थात् खेत, ज़मीन आदि एवं वास्तु अर्थात् घर, दुकान, ऑफिस, बंगला वगैरह। इन सबका प्रमाण निश्चित करने के बाद लोभादि कषाय के अधीन होकर अपने पुत्र-पुत्री आदि के नाम कर देना अथवा घर या खेत के प्रमाण को बढ़ा देना, दो मकान का एक कर देना और ऐसा करके व्रत की मर्यादा का उल्लंघन करना, दूसरा अतिचार है। रूप्प-सुवण्णे अ - रूप्य-सुवर्णप्रमाणातिक्रम। चांदी, सोने का प्रमाण निश्चित करने के बाद, यदि लाभ दिखाई देता हो तो अधिक संग्रह करना या अन्य किसी के नाम कर देना या अनजाने में भी प्रमाण से अधिक संग्रह करना, वह तीसरा अतिचार गिना जाता हैं। कुविअपरिमाणे - कुप्यपरिमाणातिक्रम। कुप्य अर्थात् सोना-चांदी के अलावा सभी धातु के बर्तन आदि एवं उपलक्षण से घर की सब चीजें। उनकी संख्या निश्चित रखने का जो नियम लिया हो वह उत्सव, महोत्सव या विविध अनुष्ठान के प्रसंग पर भेंट-सौगाद के कारण टूटने की संभावना से बचने के लिए बर्तन आदि को तोड़-मोडकर दो में से एक बनवाना या बहुत सी चीजों को तोड़कर एक बनाकर और नए बर्तन आदि का संग्रह करना ताकि व्रत में निश्चित की हुई संख्या भी न बढ़े और लोभादि को पुष्ट करके परिग्रह भी हो जाए, ऐसे कार्य से इस व्रत में चौथा अतिचार लगता हैं। यहाँ यह भी समझ लेना चाहिए कि वैसे तो यह व्रत मर्यादा का उल्लंघन होने के कारण व्रत भंग ही है, परंतु यहाँ व्रतरक्षण का भाव भी साथ में होने के कारण यह व्रतभंग की मर्यादा में न जाकर अतिचार ही माना जाता हैं । जहाँ व्रतरक्षण का थोड़ा भी परिणाम हो वहाँ अतिचार है। दुपएचउप्पयम्मि य - द्विपद एवं चतुष्पद के परिमाण का अतिक्रम करना। द्विपद अर्थात् स्त्री, दास, दासी आदि और चतुष्पद अर्थात् गाय, भैंस आदि। इन दोनों का प्रमाण निश्चित करने के बाद उनके प्रमाण का उल्लंघन करना पाँचवाँ अतिचार हैं।
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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