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________________ तृतीय व्रत गाथा-१३ ११९ 'चोरी' का आरोप नहीं लगाता, वैसी लावारिस याने बिना मालिक की वस्तु या संपत्ति अथवा रास्ते में पड़ी हुई, अनायास प्राप्त हुई, कोई मामूली चीज़, वस्तु आदि बिना अधिकार के ले लेनी । आयरिअमप्पसत्थे इत्थ पमायप्पसंगेणं - प्रमाद के कारण अप्रशस्त भाव का प्रवर्तन होते हुए यहाँ तृतीय व्रत में, जो कोई विपरीत आचरण किया हो (उसका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ)। इस व्रत को स्वीकार करने के बाद श्रावक को अत्यंत सावधान रहना चाहिए। अगर सावधानी नहीं रही तो, अकार्य करवाए ऐसे लोभादि कषायों से मन ग्रस्त हो जाता है और फलतः व्रत दूषित हो ऐसा आचरण हो जाता हैं। श्रावक को ऐसे अप्रशस्त भाव से बचने के लिए चोरी नहीं करने के लाभ एवं चोरी करने से इस भव एवं परभव में होने वाले कटु विपाकों का विचार करके, मन को ऐसा तैयार करना चाहिए कि जिससे कभी भी चोरी करने की वृत्ति ही पैदा न हो। इस व्रत के पालन से सर्वत्र यश प्रवर्तता है। लोग ऐसे व्रतधारी व्यक्ति पर विश्वास रखते हैं जिससे वह स्वयं भी निर्भय रह पाता है और दूसरों को भी उससे भय नहीं होता। उसका धन, न्याय से कमाया होने के कारण कभी भी नाश नहीं होता। इसके अतिरिक्त इस व्रत के पालन से ऐसा पुण्य बंध होता है कि भवांतर में स्वर्गादि सुखों की प्राप्ति होती है और मनुष्य भव में वह व्यक्ति अनेक गाँव, नगर, शहर का स्वामी या चिरंजीवी राजा बनता है । इसके बजाय इस व्रत को नहीं लेने से, लेने के बाद नहीं पालने से या अतिचारों के सेवन से, इस भव में अनेक मनुष्यों की तरफ से निन्दा, धिक्कार-तिरस्कार, पराभव या देश निकाला एवं फांसी आदि की सजा होती है तथा परभव में नरक, वहाँ से निकलने के बाद मनुष्य हो तो भी मच्छीमार आदि नीच कुल में जन्म लेना, दरिद्र, हीन-अंगी, बधिर, अंधा होना तथा तिर्यंच योनि में अनेक दुःखों से दुःखी होना पड़ता है । इसलिए व्रत पालन एवं व्रत न पालने के परिणामों को सोचकर अचौर्य व्रत में दोष न लगे उसका ख्याल रखना चाहिए।
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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