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________________ २३२ सूत्र संवेदना दुविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं, न करेमि न कारवेमि0 : मन वचन एवं काया इन तीन प्रकार के योग से नहीं करूँगा और नहीं करवाऊँगा - इन दो प्रकार से (सावध व्यापार के त्याग की प्रतिज्ञा करता हूँ)। मन, वचन एवं काया - इन तीन साधनों द्वारा एवं करना, करवाना एवं अनुमोदन इन तीन प्रकार की क्रियाओं द्वारा पाप हो सकता है । जीव जब रूप, रस, गंध आदि विषयों में आसक्त बनता है एवं क्रोध, मान, माया आदि कषायों के वश में होता है, तब वह मन से अशुभ विचार करता है, असभ्य वाणी का प्रयोग करता है एवं काया से भी मन चाहा बर्ताव करता है, यह मन, वचन, काया से पाप का करना है । इसी तरीके से अन्य के पास मन, वचन, काया के द्वारा जो पाप करवाता है, वह पाप का करवाना है एवं अपनी या अन्य की इन तीन द्वारा हुई पापप्रवृत्तियों में जो आनंद व्यक्त करता 10.इन शब्दों में पहले दुविहं एवं बाद में तिविहेणं कहा गया है। उसके बाद दोनों शब्दों को विशेष रूप से समझाते हुए पहले 'दुविहं' को विशेषतः समझाने के बदले पहले 'तिविहेणं' को विशेष समझाते हुए 'मणेणं वायाए काएणं' कहा एवं बाद में 'दुविहं' को विशेष समझाते हुए 'न करेमि न कारवेमि' ऐसे शब्द प्रयोग किए हैं । पहला उद्देश्य दुविहं का होता तो शास्त्र पाठ 'न करेमि न कारवेमि मणेणं वायाए काएणं' ऐसा होना चाहिए था । उसके बदले सूत्र में 'मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि' ऐसा पाठ क्यों दिया, ऐसा हमें प्रश्न होता है ?, उसका समाधान करते हुए विशेषावश्यक भाष्य में कहा गया है कि; करण, करावण एवं अनुमोदन, मन-वचन-काया के अधीन हैं वह बताने के लिए 'मणेणं वायाए कारणं' का प्रथम प्रयोग किया है । मन आदि से ही करना, करवाना रूप क्रिया हो सकती है ऐसा बताने एवं करण का (साधन का) प्राधान्य बताने के लिए 'मणेणं वायाए कारणं' प्रथम दिया गया है । तो फिर उद्देश्य भी वैसा ही अर्थात् ‘तिविहेणं दुविहं' किया होता तो अच्छा होता ? उद्देश्य में प्रथम दुविहं प्रयोग का कारण यह है कि, वहां करने-करवाने रूप क्रिया का प्राधान्य बताया है, मन-वचन एवं काया भी सावध कार्य करे या करवाए तो कर्मबंध होता है । इसलिए वहाँ क्रिया का प्राधान्य बताने के पहले दुविहं शब्द का प्रयोग किया है । अगर इस रीति से योग एवं करण आदि का उत्क्रम न बताया होता हो उसके प्राधान्य संबंधी कोई जिज्ञासा ही नहीं होती एवं उससे ऐसी स्पष्टता द्वारा प्राधान्य का विशेष बोध भी नहीं होता । इस तरह हेतु एवं निर्देश का यह क्रम भेद शिष्य की बुद्धि की स्पष्टता के लिए भी दिया है । ऐसा विशेषावश्यक भाष्य गा. ३५३० से ३५३९' में हैं।
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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