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________________ करेमि भंते सूत्र २३१ जाव = यावत् = जब तक; यह शब्द मर्यादा बताता है। उसका संबंध नियम के साथ है । नियमं = प्रतिज्ञा, यह शब्द सावन योग से विराम पाने की जो प्रतिज्ञा है, उसकी पहचान के लिए दिया है । पजुवासामि = पर्युपासे पूरे पद का अर्थ होता है कि, जब तक मैं इस नियम का पालन करूँगा, तब तक मैं सावध योग से दूर रहूँगा ।। _ “जाव नियमं पजुवासामि" यह पाठ सामान्य बचनरूप है अर्थात् सामान्य से 'मैं जब तक नियम में हूँ' ऐसा अर्थ ही होता है । इससे ‘इतने काल तक ही' ऐसा नियम नहीं होता; फिर भी वृद्ध परंपरा से सामयिक की कम से कम काल मर्यादा एक मुहुर्त जितनी होने से वर्तमान में व्यवहार से दो घडी (४८ मिनिट) की काल मर्यादा मानी जाती है। जाव नियमं के बदले जाव सुयं या जाव साहु पज्जुवासामि का पाठ भी बोला जाता है । इसका अर्थ है जब तक मैं श्रुतज्ञान के लिए यत्न करता हूँ अर्थात् व्याख्यान श्रवण या वाचनादि जब तक चालू है, तब तक मुझे सामायिक है अथवा जब तक मैं साधु की सेवा-वैयावच्च करता हूँ, तब तक मेरा यह नियम है । इसके अलावा साधु भगवंत 'जाव नियम' के बदले 'जावज्जीवाए' शब्द का प्रयोग करते हैं क्योंकि, वे जब तक यह जीवन है, तब तक सावध योगों का पच्चक्खाण करते हैं । भाव से विरत मुनि को तो सदा के लिए सामायिक में रहने की इच्छा होती है; परन्तु वह लाचार होता है । इस जीवन से आगे की प्रतिज्ञा अगर ली जाए, तो भविष्य में प्रतिज्ञा भंग होने का भय रहता है । इसलिए ही वे जीवन पर्यन्त की ही प्रतिज्ञा ग्रहण करते प्रतिज्ञा का काल बताकर अब प्रतिज्ञा का स्वरूप बताते हैं - 9. परि + उप + आस् का प्रथम पुरुष एकवचन का रूप है । परि एवं उप ये दो उपसर्ग धातु का विशेष अर्थ बताते हैं एवं आस् = बैठना, सेवा करना ।
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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