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________________ 4. दाक्षिण्यः दूसरे की सहायता करने में बिना सोचे ना न कहे। किसी अन्य मानव के विचार अभिप्राय को या प्रार्थना को झट से उपेक्षित न करें। अयोग्य भी लगे तो मौन रखे या फिर शालिनता से व्यवहार करें। जिसके पास गंभीरता है, वही, यह गुण अमल में ला सकता है। 5. सर्वत्र निंदा त्याग: निंदा वृत्ति यानि काक वृत्ति । कौआ जैसे सड़े फल, विष्टा आदि में चोंच डालता है, वैसे ही निंदक वृत्ति वाले लोग दूसरों के मात्र दोषों को देखकर उसका अवर्णवाद करने में लग जाते है। ऐसी निन्द्य वृत्ति का त्याग करें। 6. वर्णवादश्च साधुषुः साधु एवं सज्जन पुरुषों के गुणों का प्रगटीकरण कीर्तन करना। निंदात्याग एवं गुणानुवाद ये दोनो एक सिक्के के दो पहलु हैं। 7. अवसर पर बोलना एवं अल्प बोलना : बोलना यह औषध है तो मौन यह स्वास्थ्य है। अगर स्वास्थ्य बिगडा हो तो ही औषध सेवन करे। मौन की सुरक्षा के लिए वचन का उच्चारण हो उसमें वाणी की शोभा है। जैसे सही मौसम में बोया गया बीज फलदायी बनता है वैसे अवसर पर उच्चरित अल्प बोल भी लाभदायी होते है। 8. आपत्ति में अदीन जैसे ऋतु परिवर्तन स्वभाविक है वैसे जीवन की परिस्थितियों का परिर्वतन एक स्वभाविक सिलसिला है। आपत्तियाँ नासमझ को दुखी करने में सफल हो जाती है परंतु समझदार विवेकी तो उन आपत्तियों से महत्व की शिक्षा ग्रहण करता है, और उन विषमताओं मे दीन नहीं बनता। 9. संपत्ति में नम्रता: आपत्ति में प्रसन्नता रखना शायद आसान है परंतु तरक्की में (अभ्युदय में निरहंकारिता) नम्रता का गुण दुष्कर है। 10. वचन बद्धता: प्रारंभ किये हुए कार्य को, दिये गये वचन को संकट में भी निभाना । किसी सुभाषितकार ने कहा भी है "अनारम्भो ही कार्याणां प्रथमं बुद्धिलक्षणम्" यानि बुद्धि का प्रथम लक्षण कार्य का आरंभ ही नही करना, परंतु दूसरा लक्षण ́आरब्धस्यान्तगमनम्' आरंभ किए गये कार्य को पूर्ण करना है । 11. कुलधर्मानुपालनम्: कुल परंपरा से चले आ रहे शिष्ट पुरुष आचरित रीति-नियमों को सुदृढ रूप से अपनाना। जैसे कि ब्याह, शादी की सामाजिक व्यवस्थाओं की मर्यादा को उल्लंघन न करना। मांस भक्षण, अपेय का पीना इत्यादि कुल के विरुद्ध हैं, जो संपूर्णतया त्याज्य है। इन्टरनेट, मोबाईल, जींस, रफशुस, बार, क्लब आदि मे अपनी महत्वपूर्ण शक्तिओं का बलिदान करना यह अपने कुलधर्म पर महाकलंक है। आर्यभूमि में चार चाँद लगाने वाले संतजीवन का प्रारंभिक केन्द्र बिंदु इस कुलधर्म का पालन है। 92
SR No.006119
Book TitleJain Tattva Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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