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________________ सार्थकता है। दान देनेवालों की दानवीरता सुंदर होनी चाहिए तो दान वरदान बनके रहता है। दान करते वक्त अहोभाव और दान करने के पश्चात अनुमोदना भाव जरूरी है। ध्यान में लेने जैसा है कि यहां तीसरे नंबर के गुण में देव-गुरू आदि का पूजन निर्दिष्ट है, उसका कारण यह है कि आचरण यह साधना का शरीर है, जबकि देव-गुरू भक्ति सेवा यह उस शरीर का श्वास है। श्वास बिना शरीर निष्प्राण निस्तेज है। आचरण विहीन विचारों का प्रस्तुतिकरण मात्र प्रदर्शन है जबकि आचरणयुक्त विचारणा, उच्चारण वह आत्मदर्शन है। इस आचरण का भी प्राण देव-गुरु पूजन है। अत: देव-गुरू भक्ति श्वास रूप होने से उसकी प्रधानता यहाँ बतलाई गई है। 5. सदाचार पालनम्: शिष्टाचार का पालन । इस सदाचार के 18 प्रकार है: लोकापवादभीरुत्वं, दीनाभ्युद्धरणादरः । कृतज्ञता सुदाक्षिण्यं, सदाचारः प्रकीर्तित: ।। 1|| सर्वत्र निंदासत्यागो, वर्णवादश्च साधुषु । आपद्यदैन्यमत्यन्तं, तद्वत्संपदि नम्रता।। 2 || प्रस्तावे मितभाषित्वमविसंवादनं तथा। प्रतिपन्नक्रिया चेति कुलधर्मानुपालनम्।। 3 ।। असद्व्यय परित्यागः, स्थाने चैव क्रिया सदा। प्रधानकार्ये निर्बन्धः, प्रमादस्य विवर्जनम् ।। 4।। लोकाचारानुवृत्तिश्च, सर्वत्रौचित्यपालनम् । प्रवृत्तिर्गर्हिते नेति, प्राणैः कण्ठगतैरपि।। 5 ।। 1. लोकोपवादभीरूत्वं: लोक में निंदनीय प्रवृत्ति का त्याग, दारू सेवन, परस्त्रीगमन, बडी अनीति, स्वजन, सज्जनो के प्रति दुर्व्यवहार, इत्यादि लोक निंदनीय माना गया है। इन सब निंदनीय प्रवृत्तियों से लोक समाज में उपहास एवं महा अपमान का सामना करना पड़ता है। अत: एसे महा अधर्म के कार्यों से दूर रहे। 2. दीन लोक का उद्धार: विकट परिस्थिति से गुजरते हुए दीन, अनाथ, बेरोजगारी का सामना करने वाले, मानव एवं अबोल पशु आदि की सहायता करना भी सदाचार का एक प्रकार है। 3. कृतज्ञता: अपने उपकारियों की कद्र करे। अति गहनतम स्थिति में भी उन उपकारीजनों के उपकार की झलक नजरअंदाज न हो जाय उसकी पूरी सावधानी रखे। कृतज्ञता ये सर्व गुणों की जनेता है।
SR No.006119
Book TitleJain Tattva Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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