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________________ कुणाल पिता का पत्र पढ़ रहा है। राजपुत्र कुणाल वय में छोटा था परंतु विनयविवेक में अद्वितीय था। पिताजी का पत्र आने की बात सुनकर उसको संदेश जानने की उत्कंठा जागृत हुई। अत: उसने आभार एवं अहोभाव युक्त वाणी में अधिकारियों से कहा, मेरा आज का दिन धन्य है ! आज मेरे अहोभाग्य है कि पिताजी का मुझ पर पत्र आया है, बोलिए, पिताजी का क्या संदेश है ? पिताजी का मेरे लिये क्या आदेश है? पिताजी का आदेश न जानूँ तब तक मैं चैन से नहीं बैठ सकूँगा। अधिकारी वर्ग के हृदय शोकमग्न थे। मुखाकृति पर उदासी का साम्राज्य था, वे विचारमग्न थे कि पिता जैसे पिता ने अपने प्रिय पुत्र के लिये ऐसी आज्ञा क्यों की होगी ? अपना पुत्र अंधा बने ऐसा तो कोई भी पिता नहीं चाहेगा। न कहा जा सके और न सहन हो सके ऐसी स्थिति थी। अधिकारियों ने पुत्र की बात दबा देने के अनेक प्रयत्न किये, परंतु कुणाल की बालहठ और राजहठ के आगे अन्तत: उन्हें झुकना पड़ा। अश्रुभरी आँखों और गद्गद् कंठ से उन्होंने कुणाल को पत्र बताया। कुणाल ने कहा, ओह ! इसमें कौन-सी बडी बात है। मैं मौर्यवंश में उत्पन्न सपूत हूँ, अत : मेरे मन मेरी आँखों की तुलना में मेरे पिताजी की आज्ञा का महत्त्व अत्यधिक है। पिताजी की आज्ञा के खातिर मैं स्वयं ही अंधत्व स्वीकार करने के लिये तैयार हूँ, अत: आपको घबराने की आवश्यकता नहीं है। सभी के हृदय द्रवित कर दे ऐसा वह पल आ पहुँचा और राजकुमार कुणाल ने रत्न जैसी अपनी दोनों आँखों में धधकती हुई लोहे की सलाखें तूंस कर आँखे फोड दी व अंधत्व को स्वीकार कर लिया। बच्चों ! देखा न ! एक बिंदु ने राजकुमार के जीवन के साथ कैसी क्रूर खिलवाड कर डाली? कुणाल की यह कथा-शब्द में एक बिंदु की वृद्धि भी अर्थ का कैसा अनर्थ कर डालती है- इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण है, परंतु उसके साथ ही पितृभक्ति का पाठ, आज्ञांकितता का आदर्श और मौर्यवंश की महानता का भी परिचय दे जाती है। इसी कुणाल के पुत्र संप्रति राजा थे जिन्हें जन्म लेते ही राज्य मिला था। बता की आज्ञा पाल रखफारशलता लय अपनी दोनों ही आख
SR No.006119
Book TitleJain Tattva Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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