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________________ ही था, परंतु वह छोटा था, तभी उसकी माता यमलोक की मेहमान बन चुकी थी, अत: उसकी सौतेली माता की ओर से कुणाल के जीवन के लिये बडा भय था। सम्राट अशोक की रानियों की आँखों में यह कुणाल कटे की तरह चुभता था, क्योंकि राजगद्दी का अधिकारी वह था। अत: अन्य रानियाँ अपने पुत्र के मोह में कुणाल रुपी काँटा निकाल फेंकने के षड्यंत्र में व्यस्त रहती थी। अत: उसके जीवन की रक्षा हेतु उसके पिता अशोक सम्राट ने कुणाल को उज्जयिनी (उज्जेन) नामक शहर में भेजा था। वहाँ उसकी सुरक्षा और पढाई-लिखाई की सारी व्यवस्था सम्हाल लें ऐसे कुछ अधिकारियों को नियुक्त कर रखा था। ऐसा करने का राजा का आशय यह था कि मातृविहीन कुणाल सुरक्षित रह सके, पढ लिख कर अच्छी तरह से तैयार हो सके और उसके कानों में माता की मृत्यु की बात भी टकराए नहीं। __अधिकारियों की देखरेख में उज्जैन में बसता हुआ कुणाल लगभग आठ वर्ष का होने आया तब उसके पिता अशोक को विचार आया कि अब कुणाल को पढाना चाहिये, क्योंकि यह राजगद्दी का उत्तराधिकारी है। अत: राजा ने उस समय प्रचलित प्राकृत भाषा में उन अधिकारियों पर एक पत्र लिखा था कि कुमारो अधीयउ (कुमार अब पढे) इस प्रकार पत्र लिखकर एक ओर रखा और स्वयं भोजनादि में व्यस्त हो गए। इतने में दुर्भाग्य योग से कुणाल के प्रति तीव्र ईर्ष्या रखने वाली तिष्यगुप्ता नामक सौतेली माता वहाँ आ गई। उसके हाथ में अशोक द्वारा लिखित वह पत्र आ गया। उसे पढते ही रानी के मन में विचार विद्युत चमत्कृत हुई कि राजगद्दी का उत्तराधिकारी होने से यह कुणाल ही मेरे पुत्र के लिये राजगद्दी प्राप्त करने में अवरोधक है। यह अवरोध दूर हो जाए तो ही मेरे पुत्र को राजगद्दी प्राप्त हो सकती है। मुझे जब यह अवसर प्राप्त हुआ है, तब मुझे ऐसा कुछ कर डालना चाहिए कि जिससे यह कुणाल राज्य संचालन के योग्य ही न रहे। तभी उसके मन में एक कुविचार छा गया कि यह कुणाल अँधा हो जाए तो कितना उत्तम रहे ! फिर क्या देर? तिष्यगुप्ता ने उस पत्र में मात्र एक ही बिंदु लगाकर अपना कार्य सम्पादित कर लिया। एक बिंदु चढा अधीयउ शब्द के मस्तक पर और उसने अर्थ का अनर्थ कर डाला ! बिंदु मस्तक पर चढते ही अधीयउ का अंधीयउ हो गया। कुमारो अधीयउ का अर्थ था - कुमार पढे, जबकि कुमारो अंधीयउ का अर्थ हो गया कुमार अँधा हो जाए। सम्राट अशोकश्री अब उस पत्र को कुछ भी परिवर्तन न करें इसकी चौकसी करती हुई तिष्यगुप्ता वहीं बैठी रही। स्वलिखित पत्र बंद करने से पूर्व पुन: एक बार पढ लेना चाहिए, परंतु सम्राट अनेक कार्यों में व्यस्त होने से उसने वह पत्र बिना पढे ही बंद कर दिया। सील करके ऊपर राज्य की मुहर-छाप लगाकर उज्जैन रवाना भी कर दिया। उज्जैन में नियुक्त उसके अधिकारियों के हाथ में जब वह पत्र आया, तब उसे पढकर अधिकारी गण तो अति उदास बन गए। 21
SR No.006119
Book TitleJain Tattva Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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