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________________ (४१) व्रतनुं पालन करनार मनुष्य, अलबत, पोते छूटी राखेली भूमी बहारना प्राणिनी हिंसा तो नन करी शके एतो स्पष्टज छे. परन्तु आवा एक निर्दोष नियमने विरोधीसंप्रदाये केवा विकृतरूपमा आलेख्युं छे ? पण एमां ए आश्चर्य जेवू कशुं नथी. कारण के कोई पण धार्मिक संप्रदाय पासेथी, तेना विरोधीमतना सिद्धांतोनुं यथार्थ अने प्रमाणिक आलेखन मेळववानी आपणे आशा नज राखवी जोईए. तेओ स्वाभाविक रीते, ते सिद्धांतोनुं आलेखन एवाज रूपमां करशे के जेथी तेमां देखाई आवता दोषो वधारे मोटा प्रमाणमां बतावी शकाय. जैनो पण आ बाबतमां बौद्धो करतां लेशमात्र उतरे तेम नथी. तेमणे पण बौद्धोना सिद्धांतोने आजप्रमाणे विकृतरूपमां आलेख्या छे. बौद्धोना ए मन्तव्यनु के- पाप ए तेना आचरनारने आशय उपर आधार राखे छे, तेनुं जैनोए, आ पुस्तकना पृ० ४१४ उपर, केवू असत्य निरूपण कयु छे ते जोवा जेवू छ. ए ठेकाणे जैनोए बौद्धोना एक १ पाप ए आशय उपर आधार राखे छे, ते मात्र मनवाळा पंचेन्द्रियजीवोने आश्रित कही शकाय पण निगोदादिकथी लईने असंज्ञिपंचेन्द्रिय सुधीना जीवोने मन होतुं नथी अने ते कायिक पापथीज उंचा आवी शकता नथी, तेथी कायिकपापनो पण दरजो ओछो न गणी शकाय माटे जैनोनुं करेलं ते एकांतपक्षनुं खंडन अयुक्त नथी. संग्राहक. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005250
Book TitleJainetar Drushtie Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarvijay
PublisherDahyabhai Dalpatbhai
Publication Year1923
Total Pages408
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size13 MB
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