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________________ (२५) शिष्ट रह्यं हतुं एवं जे कथन छे ते आपी शकाय छे. आ उपरथी खात्री थशे के चौदपूर्वविषयक प्रचलितपरंपरानो अमे जे एवो खुलासो करेलो छे के पूर्वो ते सौथी प्राचीन सिद्धांतग्रन्थो हता, अने तेना पछी तेनुं स्थान एक नवा सिद्धांते लीधुं हतुं, ते युक्तिसंगत छे. परन्तु आटलो खुलासो आप्या बाद आ प्रश्न उभो थाय छे के-आवी रीते प्राचीनसिद्धांतनो त्याग करवामां तथा नवा सिद्धान्तनुं निरूपण करवामां शुं प्रयोजन उपस्थित थयु हशे ? आ विषयमा मात्र कल्पना शिवाय अन्य कोई गति नथी. अने तदनुसार मारो स्वतंत्र अभिप्राय आ प्रमाणे छे- आपणे जाणीए छीए के दृष्टिवाद नामना बारमा अंगमां चौद पूर्वो आवेलां हतां तथा ते पूर्वोमां मुख्यत्वे करीने दृष्टिओनुं एटले जैन अने जैनेतर दर्शनोना तात्विकविचारो-अभिप्रायोजें वर्णन करेलु हतुं. आ उपरथी आपणे एम कल्पी शकीए छीए के तेमां महावीर अने तेमना प्रतिस्पर्द्धिधर्मसंस्थापकोनी वच्चे थएला वादोन वर्णन आवेलं हशे. मारा आ अनुमानना समर्थनमा प्रत्येक पूर्वना नामना अन्ते जे 'प्रवाद' ए शब्द मुकवामां आव्यो छे ते आपी शकाय छे. आ उपरांत ए पण एक वात ध्यानमा राखवानी छे, के महावीर कोई एक नवा धर्मना संस्थापक न हता, परन्तु जेम में सिद्ध करेलुं छे, तेओ एक प्राचीनधर्मना सुधारक मात्र न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005250
Book TitleJainetar Drushtie Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarvijay
PublisherDahyabhai Dalpatbhai
Publication Year1923
Total Pages408
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size13 MB
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