SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १७३) भावार्थ हे हृषीकेश- अतीन्द्रियज्ञानिन् ! ( १ ) हे विष्णो- ज्ञानयी सर्वव्याप्त ! (२) हे जगन्नाथ- जगत्ना जीवोना नाथ ! ( ३) हे जिष्णो- रागादिकने जितनार ! ( ४ ) हे मुकुन्द- पापी छोडावनार ( ५ ) हे अच्युतनिजपदथी अच्युत ! (६) हे श्रीपते- केवलादि लक्ष्मीना पति ! (७) हे विश्वरूप- असंख्य प्रदेशथी आवृत ! (८) हे अनन्त- अन्तविनाना सिद्ध ! (९) एवी रीते जे आशा विनाना लोकोथी संबोधाएलो छे ते एकन जिनेन्द्र परमात्मा अमारा कल्याणने माटे थाओ ॥ ५॥ पुराऽनङ्गकालाऽरिराकोशकेशः कपाली महेशो महाव्रत्युमेशः । मतो योऽष्टमूर्तिः शिवो भूतनाथः स एकः परात्मा गतिमें जिनेन्द्रः ॥ ६॥ भावार्थ-(१) जे क्षपकश्रेणीसमये मलीन कामदेवनो शत्रु, (२) अन्तना आकाशनो ईश, (३) ब्रह्मचर्यने पालनार, ( ४ ) ऐश्वर्यने भोगनार, (६ ) महाव्रती, (६ ) केवलज्ञानरूप पार्वतीनो ईश, (७) सर्वजीवोने सुख करनार, ( ८ ) सर्वप्राणिओनो नाथ ए आठ मूर्तिरूपथी मनाएलो छे ते एकन जिनेन्द्र परमात्मा “अमारा कल्याणने माटे थाओ ॥ ६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005250
Book TitleJainetar Drushtie Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarvijay
PublisherDahyabhai Dalpatbhai
Publication Year1923
Total Pages408
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy