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________________ ( १७२ ) त्रिलोकीपरित्राण निस्तन्द्रमुद्रः स एकः परात्मागतिर्मे जिनेन्द्रः ॥ ४ ॥ भावार्थ - जे लौकीक बाह्यसत्त्वनी मैत्री ( पुद्गलरा गदशा ) ने प्राप्त थलो नथी. अने रजोगुणथी तथा तमोगुणथी पण प्रेराएलो नथी. त्रणे लोकनी रक्षा माटे प्रगटपणे मूर्ति छे जेमनी एवो ते एकज जिनेन्द्र परमात्मा अमारा कल्याणने माटे थाओ ॥ ४ ॥ हृषीकेश ! विष्णो ! जगन्नाथ ! जिष्णो ! मुकुन्दाच्युत ! श्रीपते ! विश्वरूप ! अनन्तेति सम्बोधितो यो निराशैः, Jain Education International स एकः परात्मा गतिर्मे जिनेन्द्रः ॥ ५ ॥ Answ आ ५, ६ अने ७ मा काव्यमां- हृषीकेशादिक जे जे नामोथी स्तुति करवामां आवी छे. ते ते शब्दोना अर्थ प्रमाणे खरा गुणवाला तो एज परमपरमात्मा छे. बाकी बीजामतवालाओए तो नाममात्रथीज कल्पी लीला छे. कारण न तो तेवा अलोकिक गुणोवाली ते देवोनी कल्पेली मूर्तिओ छे तेमज न तो तेवा गुणोवालां ते देवोनां चरित्रो लखाएलां जोवामां आवे छे. माटे तेमणे कल्पेला ते देवो नाममात्रथी तो खरा परंतु गुणोथी नहीं एवो आ स्तुतिकारनो आशय छे. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005250
Book TitleJainetar Drushtie Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarvijay
PublisherDahyabhai Dalpatbhai
Publication Year1923
Total Pages408
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size13 MB
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