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________________ (८०) परस्पर संदर्शन हो जावे तो मै कृतका होजाऊं । महात्मन् हम संन्यासी है आजतक जो पांडित्यकीर्तिलाभद्वारा जो सभाविजयी होके राजा महाराजाओमें ख्यातिप्रतिपत्ति कमायके एक नाम पंडिताईका हांसल करा है, आज हम यदि एकदम आपसे मिले तो वो कमायी कीर्ति जाती रहेगी। ये हम खूब समजते वो जानते है परंतु हठधर्म भी शुभपरिणाम शुभआत्माका धर्म नहीं । आज मैं आपके पास इतना मात्र स्वीकार कर सकता हूं कि प्राचीनधर्म परमधर्म अगर कोई सत्यधर्म रहा हो तो नैनधर्म था. जिसकी प्रभा नाश करनेको वैदिकधर्म वो षट्शास्त्र वो ग्रंथकार खडे भये थे. परंतु पक्षपातशून्य होके कोई यदि वैदिकशास्त्रोपर दृष्टि देवे तो स्पष्ट प्रतीत होगा कि वैदिकबार्ते कही वो लीई गई सो सब जैनशास्त्रोंसे नमूनाईकठी करी है ईसमें संदेह नही. कितनी कबातें ऐसी है कि जो प्रत्यक्ष विचार करे विना सिद्ध नही होती है. संवत् १९४८ मिती आषाढ सुदि १०॥ पुनर्निवेदन यह है कि यदि आपकी कृपापत्री पाई तो एक दफा मिलनेका उद्यम करूंगा ॥ इति योगानंदस्वामी किंवा योगजीवानंदसरस्वती स्वामि ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005250
Book TitleJainetar Drushtie Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarvijay
PublisherDahyabhai Dalpatbhai
Publication Year1923
Total Pages408
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size13 MB
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