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________________ २२६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ११.-उद्देशक ९. १२. प्र०] अस्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे दवाई सवन्नाई पि अवन्नाई पि सगंधाइं अगंधाई पि सरसाई पि अरसाई पि सफासाई पि अफासाई पि अन्नमन्नबद्धाई अन्नमनपुट्ठाई जाव-घडताए चिटुंति ? [उ०] हंता अस्थि । १३. [प्र०] अस्थि णं भंते ! धायइसंडे दीवे दवाई सवन्नाई पि एवं चेव, एवं जाव-सयंभूरमणसमुद्दे ? [उ०] जाव हंता अत्थि। १४. तए णं सा महतिमहालिया महच्चपरिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमढे सोच्चा, निसम्म हट्रतुट्ठा समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसं पाउम्भूया तामेव दिसं पडिगया। १५. तए णं हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग० जाव-पहेसु बहुजणो अनमन्नस्स एवमाइक्खइ, जाव परूवेइ-जन्न 'देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवमाइक्खइ, जाव परूवेइ-अत्थि णं देवाणुप्पिया! ममं अतिसेसे नाणे जाव-समुहा य', तं नो इणटे समठे, समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ, जाव परूवेइ-एवं खलु एयस्स सिवस्स रायरिसिस्स छटुंछट्टेणं तं चेव जाव-भंडनिक्खेवं करेइ, भंडनिक्खेवं करेत्ता हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग० जाव-समुद्दा य । तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतियं एयमटुं सोच्चा निसम्म जाव-समुद्दा य तण्णं मिच्छा, समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ-एवं खलु जंबुद्दीवादीया दीवा लवणादीया समुद्दा तं चेव जाव असंखेजा दीवसमुद्दा पन्नत्ता समणाउसो! १६. तए णं से सिवे रायरिसी बहुजणस्स अंतियं एयमटुं सोचा निसम्म संकिए कंखिए वितिगिच्छिए भेदसमावन्ने कलुससमावन्ने जाए यावि होत्था । तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स संकियस्स कंखियस्स जाव-कलुससमावन्नस्स से विभंगे अन्नाणे खिप्पामेव परिवडिए । १७. तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अयमेयारूवे अभत्थिए जाव समुप्पन्जित्था-'एवं खलु समणे भगवं महावीरे आदिगरे तित्थगरे जाव-सचन्न सन्बदरिसी आगासगएणं चक्केणं जाव सहसंबवणे उजाणे अहापडिरूवं जाव विहरइ, तं महाफलं खलु तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं नामगोयस्स जहा उववाइए जाव-गहणयाए, तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीर, वंदामि जाव पजुवासामि, एयं णे इहभवे य परभवे य जाव भविस्सइत्तिकट्ठ एवं संपेहेति । कथन यथार्थ नथी. लवणसमुद्रमा १२. [प्र०] हे भगवन् ! लवण समुद्रमा वर्णवाळा, वर्णविनाना, गंधवाळां, गंध विनाना, रसवाळां, रसविनाना, स्पर्शवाळां ने स्पर्श द्रव्यो . विनाना द्रव्यो अन्योन्य बद्ध, अन्योन्य स्पृष्ट, यावत् अन्योन्य संबद्ध छे ? [उ०] हे गौतम! हा, छे. धातकि खंडमा १३. [प्र०] हे भगवन्! धातकिखंडमां अने ए प्रमाणे यावत् स्वयंभूरमण समुद्रमा वर्णवाळां ने वर्णरहित इत्यादि पूर्वोक्त द्रव्यो द्रव्यो. परस्पर संबद्ध छे इत्यादि यावत् ? [उ०] हे गौतम ! हा, छे त्या सुधी जाणवू. १४. त्यारबाद ते अत्यन्त मोटी अने महत्वयुक्त परिपद् श्रमण भगवान महावीर पासेथी ए अर्थ सांभळी अने अवधारी हृष्ट तुष्ट थइ श्रमण भगवंत महावीरने वांदी नमी जे दिशामाथी आवी हती ते दिशामा गइ. शिवराजर्षिर्नु १५. त्यारबाद हस्तिनापुर नगरमा शंगाटक यावद् बीजा मार्गोमां घणा माणसो परस्पर आ प्रमाणे कहे छे, यावत् प्ररूपे छे के है देवानुप्रियो ! शिवराजर्षि जे एम कहे छे-यावत् प्ररूपे छे–'हे देवानुप्रियो! मने अतिशयवाळु ज्ञान उत्पन्न थयुं छे, यांवत् बीजा द्वीपमहावीरस्वामीनुं समुद्रो नथी; ते तेनुं कथन यथार्थ नथी. श्रमण भगवान् महावीर ए प्रमाणे कहे छे, यावत् प्ररूपे छे के-छ8 छट्ठना तपने निरंतर करता कथन-असंख्यात द्वीप-समुद्रो. - शिवराजर्षि पूर्वे कह्या प्रमाणे यावत् पोताना उपकरणो मूकीने हस्तिनापुर नामना नगरमां शंगाटक यावत् बीजा मार्गोमां ए प्रमाणे क', छे-यावत् सात द्वीप-समुद्रो छे, बीजा नथी. त्यारबाद ते शिवराजर्षिनी पासे ए वात सांभळीने अवधारीने घणा माणसो एम कर छ'शिवराजर्षि जे कहे छे के मात्र सात द्वीप समुद्रो छे' ते मिथ्या छे, यावत् श्रमण भगवान् महावीर ए प्रमाणे कहे छे के हे आयुष्मन् श्रमण जंबूद्वीपादि द्वीपो अने लवणादि समुद्रो एक सरखा आकारे छे-इत्यादि पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवं, यावत् असंख्याता द्वीप-समुद्रो कह्या छे. शिवराजर्षि शंकित . १६. त्यार बाद ते शिवराजर्षि घणा माणसो पासेथी ए वातने सांभळीने अने अवधारीने शंकित, कांक्षित, संदिग्ध, अनिश्चित अचै थया. कलुषित भावने प्राप्त थया, अने शंकित, कांक्षित, संदिग्ध, अनिश्चित अने कलुषित भावने प्राप्त थयेला शिवराजर्षितुं विभंग नामे अज्ञान तरतज नाश पाम्यु. शिवराजर्षिनो महा- १७. त्यार पछी ते शिवराजर्षिने आवा प्रकारनो आ संकल्प यावत् उत्पन्न थयो-"ए प्रमाणे श्रमण भगवान् महावीर धर्मनी . आदि करनारा, तीर्थंकर, यावत् सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी छे; अने तेओ आकाशमा चालता धर्मचक्रवडे यावत् सहस्राम्रवन नामे उधानम आववानो संकल्प. यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करी यावद् विहरे छे. तो तेवा प्रकारना अरिहंत भगवंतोना नामगोत्रनुं श्रवण कबुं ते महा फळवाळु छे, तो अभिगमन वंदनादि माटे तो शुं कहेवू !-इत्यादि *औपपातिक सूत्रमा कह्या प्रमाणे जाणवू, यावत् एक आर्य धार्मिक सुवचननुं श्रवण करवू महा फलवाळु छे, तो तेना विपुल अर्थ- अवधारण करवा माटे तो शुं कहे ! तेथी हुं श्रमण भगवान् महावीरनी पासे जाउं, वांदु अने नमुं, यावत् तेओनी पर्युपासना करुं, ए मने आ भवमा अने परभवमां यावत् श्रेयने माटे थशे" एम विचारे छे. * जुओ औपपा० ५० ५७-२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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